पृष्ठ:रघुवंश.djvu/५४

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रघुवंश।

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पहला सर्ग।

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सन्तान-प्राप्ति के लिए राजा दिलीप का वशिष्ठ के आश्रम को जाना।

जिस तरह वाणी और अर्थ एक दूसरे को छोड़ कर कभी अलग अलग नहीं रहते उसी तरह संसार के माता-पिता, पार्वती और परमेश्वर भी, अलग अलग नहीं रहते; सदा साथ ही साथ रहते हैं। इसीसे मैं उनको नमस्कार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे शब्दार्थ का अच्छा ज्ञान हो जाय। मुझमें लिखने की शक्ति भी आ जाय और जो कुछ मैं लिखू वह सार्थक भी हो-मेरे प्रयुक्त शब्द निरर्थक न हों। इस इच्छा को पूर्ण करने वाला उमा-महेश्वर से बढ़ कर और कौन हो सकता है? यही कारण है जो मैं और देवताओं को छोड़ कर इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्हीं की वन्दना करता हूँ।

प्रत्यक्ष सूर्य से उत्पन्न हुआ सूर्य-वंश कहाँ? और, अज्ञान से घिरी हुई मेरी बुद्धि कहाँ? सूर्य-वंश इतना विशाल और मेरी बुद्धि इतनी अल्प! दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। एक छोटी सी डोंगी पर सवार होकर महासागर को पार करने की इच्छा रखने वाले मूढमति मनुष्य का साहस जिस प्रकार उपहासास्पद होता है, ठीक उसी प्रकार सूर्य वंश का वर्णन करने के विषय में मेरा साहस भी उपहासास्पद है।