पृष्ठ:रघुवंश.djvu/५७

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रघुवंश।


प्रसन्नतापूर्वक लोग उसका आश्रय भी स्वीकार करते हैं। राजा दिलीप भी ऐसे ही समुद्र के समान था। उसके शौर्य, वीर्य आदि गुणों के कारण उसके आश्रित जन उससे डरते भी रहते थे और उसके दयादाक्षिण्य आदि गुणों के कारण उस पर प्रीति भी करते थे।

सारथी अच्छा होने से जैसे रथ के पहिए पहले के बने हुए मार्ग से एक इञ्च भी इधर उधर नहीं जाते उसी तरह, प्रजा के प्राचार का उपदेष्टा होने के कारण उसकी प्रजा वैवस्वत मनु के समय से चली आने वाली आचार-परम्परा का एक तिल भर भी उल्लङ्घन नहीं कर सकती थी। अपने उपदेशों और आज्ञाओं के प्रभाव से राजा दिलीप ने अपनी प्रजा को पुराने आचार-मार्ग से ज़रा भी भ्रष्ट नहीं होने दिया। प्रजा के ही कल्याण के निमित्त वह उससे कर लेता था--सूर्य जो पृथ्वी के ऊपर के जल को अपनी किरणों से खींच लेता है वह अपने लिए नहीं; उसे वह हज़ार गुना अधिक करके फिर पृथ्वी ही पर बरसा देने के लिए खींचता है। पृथ्वी ही के कल्याण के लिए वह उसके जल का आकर्षण करता है, अपने कल्याण के लिए नहीं।

वह राजा इतना पराक्रमी और इतना शूरवीर था कि सेना से काम लेने की उसे कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। छत्र और चामर आदि राज-चिह्न जैसे केवल शोभा के लिए वह धारण करता था वैसे ही सेना को भी वह केवल राजसी ठाठ समझ कर रखता था। उसके पुरुषार्थ के दो ही साधन थे—एक तो प्रत्येक शास्त्र में उसकी अकुण्ठित बुद्धि; दूसरे उसके धनुष पर जब देखो तब चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा अर्थात् डोरी। इन्हीं दो बातों में उसका सारा पुरुषार्थ खर्च होता था। उसके चढ़े हुए धनुष को देख कर ही उसके वैरी कॉपा करते थे। अतएव कभी उसे युद्ध करने का मौका ही न पाता था। इसीसे उसका प्रायः सारा समय शास्त्राध्ययन में ही व्यतीत होता था।

जो काम वह करना चाहता था उसे वह गुप्त रखता था, अपने विचारों को वह पहले से नहीं प्रकट कर देता था। अपने हर्ष-शोक आदि विकारों को भी वह अपने चेहरे पर परिस्फुट नहीं होने देता था। उसकी क्रियमाण बातें और आन्तरिक इच्छायें मन की मन ही में रहती थीं। पूर्व जन्म के