पृष्ठ:रघुवंश.djvu/५९

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रघुवंश।


अपनी सम्पत्ति का बदला करके पृथ्वी और स्वर्गलोक, दोनों, का पालन किया। अर्थात् यज्ञ करने में जो खर्च पड़ता है उसकी प्राप्ति के लिए ही राजा ने कर लेकर पृथ्वी को दुहा-उसे खाली कर दिया। उधर उसके किये हुए यज्ञों से प्रसन्न होकर इन्द्र ने पानी बरसा कर पृथ्वी को धान्यादि से फिर परिपूर्ण कर दिया।

धर्मपूर्वक प्रजापालन करने से उसे जो यश प्राप्त हुआ उसका अनुकरण और किसी से न करते बना--उसके सदृश प्रजापालक राजा और कोई न हो सका। उस समय उसके राज्य में कभी, एक बार भी, चोरी नहीं हुई। चौर-कर्म का सर्वथा अभाव होगया। 'चोरी' शब्द केवल कोश में ही रह गया।

ओषधि कड़वी होने पर भी रोगी जिस तरह उसका आदर करता है उसी तरह उस राजा ने शत्रुता करने वाले भी सज्जनों का आदर किया। और, कुमार्ग से जानेवाले मित्रों का भी, साँप से काटे गये अँगूठे के समात, तत्काल ही परित्याग किया। भलों ही का वह साथी बना; बुरों को कभी उसने अपने पास तक नहीं फटकने दिया।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-इन पाँचों तत्वों का नाम पञ्च महाभूत है। जिस सामग्री से ब्रह्मा ने इन पाँच महाभूतों को उत्पन्न किया है, जान पड़ता है, उन्हीं से उसने उस राजा को भी उत्पन्न किया था। क्योंकि, पाँच महाभूतों के शब्द, स्पर्श आदि गुणों की तरह उसके भी सारे गुण दूसरों ही के लाभ के लिए थे। जो कुछ वह करता था सदा परोपकार का ध्यान रख कर ही करता था। समुद्र-पर्यन्त फैली हुई इस सारी पृथ्वी का अकेला वही एक सार्वभौम राजा था। उसका पालन और रक्षण वह बिना किसी प्रयास या परिश्रम के करता था। उसके लिए यह विस्तीर्ण धरणी एक छोटी सी नगरी के समान थी।

यज्ञावतार विष्णु भगवान की पत्नी दक्षिणा के समान उसकी भी पत्नी का नाम सुदक्षिणा था। वह मगधदेश के राजा की बेटी थी। उसमें दाक्षिण्य, अर्थात् उदारता या नम्रता, बहुत थी। इसीसे उसका नाम सुदक्षिणा था। यद्यपि राजा दिलीप के और भी कई रानियाँ थीं, तथापि उसके मन के अनुकूल बर्ताव करने वाली सुदक्षिणा ही थी। इसीसे वह