पृष्ठ:रघुवंश.djvu/६१

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रघुवंश।


कि राजा उन्हें नहीं मारेगा। इस कारण बड़े कुतूहल से वे मृग, मार्ग के पास आकर, रथ की तरफ़ एकटक देखने लगते थे। ऐसा दृश्य उपस्थित होने पर सुदक्षिणा तो मृगों और राजा के नेत्रों के सादृश्य पर आश्चर्य करने लगती थी और राजा मृगियों और सुदक्षिणा के नेत्रों के सदृश्य पर। उस समय सारस पक्षियों का समूह पंक्ति बाँध कर राजा के मस्तक के ऊपर उड़ता हुआ जाता था। इससे ऐसा मालूम होता था कि वह सारसों की पंक्ति नहीं, किन्तु पूजनीय पुरुषों की शुभागमनसूचक माङ्गलिक पुष्प-माला किसी ने, आसमान में, बिना खम्भों के बाँध दी है। उन पक्षियों के श्रुति-सुखद शब्दों को बारबार सिर ऊपर उठा कर वे सुनते थे। जिस दिशा की ओर वे जा रहे थे, पवन भी उसी दिशा की ओर चल रहा था। वायु की गति उनके लिए सर्वथा अनुकूल थी। इससे यह सूचित होता था कि उन दोनों का मनोरथ अवश्य ही सिद्ध होगा। वायु अनुकूल होने से घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल भी आगे ही को जाती थी। न रानी की पलकों ही को वह छू जाती थी और न राजा की पगड़ी ही को। सरोवरों के जल की लहरों के स्पर्श से शीतल हुए, अपने श्वास के समान अत्यन्त सुगन्धित, कमलों का सुवास प्राप्त होने से, मार्ग का श्रम उन्हें ज़रा भी कष्टदायक नहीं मालूम होता था।

राजा दिलीप ने याज्ञिक ब्राह्मणों के निर्वाह के लिए न मालूम कितने गाँव दान किये थे। उनमें वध्य पशुओं के बाँधने के लिए गाड़े गये यूप नामक खूटे यह सूचित करते थे कि याज्ञिक ब्राह्मणों ने, समय समय पर, वहाँ अनेक यज्ञ किये हैं। ऐसे गाँवों में जब रानी सहित राजा पहुँचता था तब वह ब्राह्मणों की सादर पूजा करता था, जिससे प्रसन्न होकर वे लोग राजा को अवश्यमेव सफल होनेवाले आशीर्वाद देते थे।

अब लोग यह सुनते थे कि राजा इस रास्ते से जा रहा है तब बूढ़े बूढ़े गोप ताज़ा मक्खन लेकर उसे भेंट देने आते थे। उन लोगों की भेंट स्वीकार करके राजा उनसे मार्गवर्ती जङ्गली पेड़ों के नाम पूँछ पूँछ कर उन पर अपना अनुराग प्रकट करता था।

शीतकाल बीत जाने पर वसन्तऋतु में चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का योग होने से जैसी दर्शनीय शोभा होती है, वैसी ही शोभा जङ्गल की