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रघुवंश ।

प्रकार की सामग्रियाँ प्रस्तुत कर देने के निमित्त कामधेनु भी वहीं वास करती है। उसके शीघ्र लौट आने की भी आशा नहीं; क्योंकि वह यज्ञ जल्द समाप्त होने वाला नहीं । तेरा वहाँ जाना भी असम्भव है; क्योंकि पाताल के द्वार पर बड़े बड़े भयङ्कर सर्प, द्वारपाल बन कर,द्वार-रक्षा कर रहे हैं । अतएव वहाँ मनुष्य का प्रवेश नहीं हो सकता। हाँ,एक बात अवश्य हो सकती है । उस कामधेनु की कन्या यहीं है। उसे कामधेनु ही समझ कर शुद्धान्तः करण से पत्नी-सहित तू उसकी सेवा कर । प्रसन्न होने से वह निश्चय ही तेरी कामना सिद्ध कर देगी।"

यज्ञों के करने वाले महामुनि वशिष्ठ यह कह ही रहे थे कि कामधेनु की नन्दिनी नामक वह अनिन्द्य कन्या भी जङ्गल से चर कर आश्रम को लौटी। यज्ञ और अग्निहोत्र के लिए घी,दूध आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वशिष्ठ ने उसे आश्रमही में पाल रक्खा था। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही कोमल थे । उसका रङ्ग वृक्षों के नवीन पत्तों के समान लाल था। उसके माथे पर सफ़ेद बालों का कुछ कुछ टेढ़ा एक चिह्न था । उस शुभ्र चिह्न को देख कर यह मालूम होता था कि आरक्त सन्ध्या ने नवोदित चन्द्रमा को धारण किया है। उसका ऐन घड़े के समान बड़ा था । उसका दूध अवभृथ-नामक यज्ञ के अन्तिम स्नान से भी अधिक पवित्र था । बछड़े को देखते ही वह थन से टपकने लगता था। जिस समय उसने आश्रम में प्रवेश किया उस समय उसके थन से निकलते हुए धारोष्ण दूध से पृथ्वी सोंची सी जा रही थी। उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के कारण समीप ही बैठे हुए राजा के शरीर पर जा गिरे। उनके स्पर्श से राजा ऐसा पवित्र हो गया जैसा कि त्रिवेणी आदि तीर्थों में स्नान करने से मनुष्य पवित्र हो जाता है।

जिसके दर्शन ही से मनुष्य पवित्र हो जाता है ऐसी उस नन्दिनी नामक धेनु को देख कर शकुनशास्त्र में पारङ्गत भूत-भविष्यत् के ज्ञाता तपोनिधि वशिष्ठ मुनि के मनोरथ सफल होने के प्रार्थी उस यजमान-यज्ञ कराने वाले राजा से इस प्रकार कहा:-

"हे राजा ! तू अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझ । तेरी इच्छा पूर्ण होने में देर नहीं । क्योंकि नाम लेते ही यह कल्याणकारिणी धेनु