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दूसरा सर्ग।


कारण यह कि कामधेनु कन्या नन्दिनी के समान सामर्थ्य रखनेवाले महात्मा यदि अपने भक्तों की पूजा-अर्च्चा सानन्द स्वीकार कर लेते हैं तो उससे यही सूचित होता है कि आगे चल कर पूजक के अभीष्ट मनोरथ भी अवश्य ही सफल होंगे।

गाय की पूजा हो चुकने पर राजा दिलीप ने अरुन्धती-सहित वशिष्ठ के चरणों की वन्दना की। फिर वह सायङ्कालीन सन्ध्योपासन से निवृत्त हा। इतने में दुही जा चुकने के बाद नन्दिनी आराम से बैठ गई। यह देख कर, अपनी भुजाओं के बल से वैरियों का उच्छेद करनेवाला राजा भी उसके पास पहुँच गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने गाय के सामने एक दीपक जला दिया और अच्छा अच्छा चारा भी रख दिया। जब वह सोने लगी तब राजा भी पत्नी-सहित सो गया। ज्योंही प्रातःकाल हुआ और गाय सो कर उठी त्योंही उसका रक्षक वह राजा भी उठ खड़ा हुआ।

सन्तान की प्राप्ति के लिए, उस गाय की इस प्रकार पत्नी-सहित सेवा करते करते उस परम कीर्तिमान और दीनोद्धारक राजा के इक्कीस दिन बीत गये। बाईसवें दिन नन्दिनी के मन में राजा के हृदय का भाव जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने अपने उस अनुचर की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उसने कहा-“देखें, यह मेरी सेवा सच्चे दिल से करता है या नहीं।” यह सोच कर उसने गङ्गाद्वार पर हिमालय की एक ऐसी गुफा में प्रवेश किया जिसमें बड़ी बड़ी घास उग रही थी।

दिलीप यह समझता था कि इस गाय पर सिंह आदि हिंसक जीवों का प्रत्यक्ष आक्रमण तो दूर रहा, इस तरह के विचार को मन में लाने का साहस तक उन्हें न होगा। अतएव वह निश्चिन्तता-पूर्वक पर्वत की शोभा देखने में लगा था। उसका सारा ध्यान हिमालय के प्राकृतिक दृश्य देखने में था। इतने में एक सिंह नन्दिनी पर सहसा टूट पड़ा और उसे उसने पकड़ लिया। परन्तु राजा का ध्यान अन्यत्र होने के कारण उसने इस घटना को न देखा। सिंह के द्वारा पकड़ी जाने पर नन्दिनी बड़ी जोर से चिल्ला उठी। गुफा के भीतर चिल्लाने से उसके आर्तनाद की बहुत बड़ी प्रतिध्वनि हुई। उसने पर्वत की शोभा देखने में लगी हुई उस दीनवत्सल