पृष्ठ:रघुवंश.djvu/७७

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रघुवंश ।

यथेच्छ तृप्ति हो जायगी। इस गाय को न छुड़ा सकने के कारण तू अपने मन में ज़रा भी सङ्कोच न कर। इसमें लज्जित होने की कोई बात नहीं। निःसङ्कोच होकर तू यहाँ से आश्रम को लौट जा। गुरु पर शिष्य की जितनी भक्ति हो सकती है उतनी तू प्रकट कर चुका । अतएव तू इस विषय में अपराधी नहीं । इस तरह यहाँ से चले जाने के कारण तेरी कीति पर भी किसी तरह का धब्बा नहीं लग सकता। क्योंकि,जिस वस्तु की रक्षा शस्त्रों से हो सकती हो उसी की रक्षा न करने से शस्त्र-धारियों पर दोष आ सकता है। जिसकी रक्षा शस्त्रों से हो ही नहीं सकती वह यदि नष्ट हो गई तो उससे शस्त्रधारियों का यश क्षीण नहीं हो सकता।"

सिंह के ऐसे गम्भीर और गर्वपूर्ण वचन सुन कर पुरुषाधिराज दिलीप के मन की ग्लानि कुछ कम हो गई। अब तक वह यह समझ रहा था कि सिंह के द्वारा इतना अपमानित होने पर भी मैं उसे दण्ड न दे सका,इसलिए मुझे धिक्कार है । परन्तु अब उसका यह विचार कुछ कुछ बदल गया-उसकी निज विषयक अवज्ञा ढीली पड़ गई । उसने सोचा कि मेरे शस्त्र शङ्कर के प्रभाव से कुण्ठित हो गये हैं, मेरी अशक्तता या अयोग्यता के कारण तो हुए ही नहीं । अतएव यह कोई खेद की बात नहीं । महापराक्रमी होने पर भी वीर क्षत्रिय अपनी बराबरी के वीरों ही की स्पर्धा कर सकते हैं, परमेश्वर की नहीं कर सकते ।

एक दफ़े महादेव पर बज्र छोड़ने की इच्छा से इन्द्र ने अपना हाथ उठाया । पर देवाधिदेव महादेव ने जो उसकी तरफ़ आँख उठाकर देख दिया तो इन्द्र का वह हाथ पत्थर की तरह जड़ होकर जैसे का तैसा ही रह गया । इस मौके पर दिलीप की भी दशा इन्द्रही की सी हुई। यह पहला ही प्रसङ्ग था कि उसने बाण प्रहार करने में अपने को असमर्थ पाया। पहले कभी ऐसा न हुआ था कि बाण चलाने का उद्योग करते समय बाण की पूँछही में उसका हाथ चिपक रहा हो। शरसन्धान करने में इन्द्र की तरह अपना प्रयत्न निष्फल हुआ देख राजा ने सिंह से कहा:-

"हे सिंह! तुझे बाण का निशाना बनाने में विफल-मनोरथ होने पर भी जो कुछ मैं तुझसे कहना चाहता हूँ वह अवश्य ही मेरे लिए उपहासा-