पृष्ठ:रघुवंश.djvu/८०

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दूसरा सर्ग।

राजा से वही बात कही । अर्थात् हिमालय ने भी उस कथन को प्रतिध्वनि द्वारा दुहरा कर यह सूचित किया कि मेरी भी यही राय है ।

अब तक वह सिंह बेचारी नन्दिनी को दबाये हुए बैठा था । उसके पजों में फंसी हुई वह बेतरह भयभीत होकर बड़ी ही कातर-दृष्टि से राजा को देख रही थी और अपनी रक्षा के लिए मन ही मन मूक-प्रार्थना कर रही थी। राजा को उसकी उस दशा पर बड़ी ही दया आई। अतएव उसने सिंह से फिर इस प्रकार कहा :-

"क्षत्र-शब्द का अर्थ बहुत ही प्रौढ़ है। 'क्षत'अर्थात् नाश,अथवा आयुध आदि से किये जानेवाले घाव,से जो रक्षा करता है वही सच्चा क्षत्र अथवा क्षत्रिय है। यह नहीं कि इस शब्द का अकेले में ही ऐसा अर्थ करता हूँ। नहीं,त्रिभुवन में इसका यही अर्थ विख्यात है। सभी इस अर्थ को मानते हैं । अतएव,इस अर्थ के अनुकूल व्यवहार करना ही मेरा परम धर्म है । नाश पानेवाली चीज़ की रक्षा करने के लिए मैं सर्वथा बाध्य हूँ। यदि मुझसे अपने धर्म का पालन न हुआ तो राज्य ही लेकर मैं क्या करूँगा ? और,फिर, निन्दा तथा अपकीर्ति से दूषित हुए प्राण ही मेरे किस काम के ? धर्मपालन न करके अकीति कमाने की अपेक्षा तो मर जाना ही अच्छा है । नन्दिनी के मारे जाने से अन्य हज़ारों गायें देने पर भी महर्षि वशिष्ठ का क्षोभ कदापि शान्त न हो सकेगा। इसमें और इसकी माता सुरभि नामक कामधेनु में कुछ भी अन्तर नहीं। यह भी उसी के सदृश है । यदि तुझ पर शङ्कर की कृपा न होती तो तू कदापि इस पर आक्रमण न कर सकता । तूने यह काम अपने सामर्थ्य से नहीं किया। महादेव के प्रताप से ही यह अघटित घटना हुई है। अतएव,बदले में अपना शरीर देकर इसे तुझसे छुड़ा लेना मेरे लिए सर्वथा न्यायसङ्गत है। मेरी प्रार्थना अनुचित नहीं। उसे स्वीकार करने से तेरी पारणा भी न रुकेगी और महषि वशिष्ठ के यज्ञ-याग आदि का भी निर्विघ्न होते रहेंगे। इस सम्बन्ध में तू स्वयं ही मेरा उदाहरण है। क्योंकि तू भी इस समय मेरे ही सदृश ,पराधीन होकर,बड़े ही यत्न से इस देवदारु की रक्षा करता है। अतएव,तू स्वयं भी इस बात को अच्छी तरह जानता होगा कि जिस वस्तु की रक्षा का भार जिस पर है उसे नष्ट करा कर वह स्वामी के सामने