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रघुवंश।

जो कुछ बच रहेगा उसी के पाने का मैं अधिकारी हो सकता हूँ, अधिक का नहीं। इसके सिवा इस विषय में तेरे पालक और अपने गुरु ऋषि की आज्ञा लेना भी मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। इस निवेदन का यही कारण है।"

महर्षि वशिष्ठ की वह धेनु,राजा की सेवा-शुश्रूषा से पहले ही सन्तुष्ट हो चुकी थी। जब उसने दिलीप के मुँह से ऐसे विनीत और औदार्यपूर्ण वचन सुने तब तो वह उस पर और भी अधिक प्रसन्न हो गई और राजा के साथ हिमालय की उस गुफा से,बिना ज़रा भी थकावट के,मुनि के आश्रम को लौट आई। उस समय माण्ड- लिक राजाओं के स्वामी दिलीप के चेहरे से प्रसन्नता टपक सी रही थी। उसके मुख की सुन्दरता पौर्णमासी के चन्द्रमा को भी मात कर रही थी। उसकी मुखचा से यह स्पष्ट सूचित हो रहा था कि नन्दिनी ने उसका मनोरथ पूर्ण कर दिया है। उसे देखते ही उसके हर्ष-चिह्नों से महषि वशिष्ठ उसकी प्रसन्नता का कारण ताड़ गये। तथापि राजा ने अपनी वर-प्राप्ति का समाचार गुरु से निवेदन करके उसकी पुनरुक्ति सी की। तदनन्तर वही बात उसने सुदक्षिणा को भी जाकर सुनाई।

यथासमय नन्दिनी दुही गई। बछड़े से जितना दूध पिया गया उसने पिया। जितना आवश्यक था उतना हवन में भी ख़र्च हुआ। जो बच रहा उसे,सज्जनों का प्यार करनेवाले अनिन्दितात्मा दिलीप ने, वशिष्ठ की आज्ञा से,मूर्तिमान् उज्ज्वल यश की तरह,उत्कण्ठा- पूर्वक,पिया।

राजा का गोसेवारूप व्रत अच्छी तरह पूर्ण होने पर, प्रातःकाल, उसकी यथाविधि पारणा हुई । विधिपूर्वक व्रत खोला गया। इसके उपरान्त प्रस्थानसम्बन्धी समुचित आशीर्वाद देकर जितेन्द्रिय वशिष्ठ ने,अपनी राजधानी को लौट जाने के लिए,दिलीप और सुदक्षिणा को आज्ञा दी । तब,आहुतियाँ दी जाने से तृप्त हुए यज्ञसम्बन्धी अग्निनारायण की,महर्षि वशिष्ठ के अनन्तर उनकी धर्मपत्नी अरुन्ध -ती की,और बछड़े सहित नन्दिनी की प्रदक्षिणा करके, उत्तमोत्तम मङ्गलाचारों से बढ़े हुए प्रभाववाले राजा ने अपने नगर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी की । नन्दिनी की सेवा करते समय अनेक दुःख और कष्ट सहन करनेवाले राजा ने,अपनी धर्म