पृष्ठ:रघुवंश.djvu/८५

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तीसरा सर्ग।
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रघु का जन्म और राज्याभिषेक ।

धीरे धीरे रानी सुदक्षिणा का गर्भ बढ़ने लगा। उसका पुत्रोत्पतिरूपि उदय-काल समीप आ गया । चन्द्रमा की चाँदनी आँखों को जैसी भली मालूम होती है,सगर्भासुदक्षिणा भी उसकी सखियों को वैसी ही भली मालूम होने लगी । राजा इक्ष्वाकु की वंशवृद्धि के आदि-कारण और सुदक्षिणा के पति राजा दिलीप की मनोकामना के साधक गर्भचिह्न-सुदक्षिणा के शरीर पर,स्पष्ट देख पड़ने लगे । शरीर कृश हो जाने के कारण अधिक गहने पहनना उसे कष्ट-दायक हो गया। अतएव,कुछ बहुत ज़रूरी गहनों को छोड़ कर, औरों को उसने उतार डाला । सफ़ेदी लिये हुए उस का पीला मुँह लोध के फूल की समता को पहुँच गया । चन्द्रमा का प्रकाश बहुत ही कम हो जाने और इधर उधर कुछ इने गिने ही तारों के रह जाने पर,प्रातःकाल होने के पहले,रात जैसे क्षीणप्रभ हो जाती है,सुदक्षिणा भी वैसी ही क्षीणप्रभ हो गई। पीतमुखरूपी चन्द्रमा और परिमित अलङ्काररूपी तारों के कारण उसमें प्रभातकालीन रात की सदृशता आ गई। ग्रीष्म के अन्त में,बादलों की बूंदों से छिड़के गये वन के अल्प जलाशय को बार बार सूंघने पर भी जिस तरह हाथी कि तृप्ति नहीं होती उसी तरह मिट्टी की सुगन्धि वाले सुदक्षिणा के मुँह को,एकान्त में,अनेक बार सूंघने पर भी राजा दिलीप की तृप्ति न हुई । सगर्भावस्था में रानी का मन मिट्टी खाने को चलता था। इसीसे वह कभी कभी उसे खा लिया करती थी। इसका कारण था। वह जानती थी कि मेरा पुत्र महाप्रतापी होगा। भूमण्डल में, समुद्र पर्यन्त उसका रथ सब कहीं बिना रुकावट के आ जा