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रघुवंश ।

भाग्यशाली,तेजस्वी और पवित्र समझ कर राजा ने सुदक्षिणा का बहुत सम्मान किया।

अपनी प्रियतमा रानी पर उस धीर-वीर और बुद्धिमान् राजा की बड़ी ही प्रीति थी। उदारता भी उसमें बहुत थी। दिगन्त-पर्यन्त व्याप्त विभव का भी उसने अपने भुज-बल से उपार्जन किया था। उसे यह भी विश्वास था कि रानी के पुत्र ही होगा । अतएव अपने प्रेम,औदार्य,वैभव और पुत्र-प्राप्ति से होने वाले अत्यधिक आनन्द के अनुसार उसने पुसवनादि सारे संस्कार, बड़ेही ठाठ से, एक के बाद एक, किये।

इन्द्र आदि आठों दिक्पालों के अंश से युक्त होने के कारण सुदक्षिणा का गर्भ बहुतही गुरुत्व-पूर्ण था । वह इतना भारी था कि रानी को आसन से उठने में भी प्रयास पड़ता था । इस कारण राजा दिलीप के घर आने पर, दोनों हाथ जोड़ कर उसका आदर-सत्कार करने में भी उसे परिश्रम होता था। ऐसी गर्भालसा और चञ्चलाक्षी रानी को देखने पर राजा के आनन्द की सीमा न रहती थी।

बालचिकित्सा में अत्यन्त कुशल और विश्वासपात्र राजवैद्यों ने, नौ महीने तक, बड़ी सावधानता से रानी के गर्भ की रक्षा की। दसवाँ महीना लगा। प्रसूति काल आ गया । उस समय, आसन्नप्रसवा रानी को मेघ-मण्डल से छाई हुई नभःस्थली के समान देख कर राजा को परम सन्तोष हुआ। वह पुलकित हो गया।

प्रभाव,मन्त्र और उत्साहरूपी साधनों से जो शक्ति युक्त होती है वह त्रिसाधना-शक्ति कहाती है। ऐसी शक्ति जिस तरह कभी नाश न पानेवाले सम्पत्ति-समूह को उत्पन्न करती है, उसी तरह इन्द्राणी की समता करने वाली सुदक्षिणा ने भी,यथासमय,बड़ी ही शुभ लग्न में,पुत्ररत्न उत्पन्न किया। उस समय रवि,मङ्गल,गुरु,शुक्र और शनि,ये पाँचों ग्रह,उच्च के थे। सब का उदय था; एक का भी, उस समय, अस्त न था। इससे सूचित होता था कि बालक बड़ा ही भाग्यवान और प्रतापी होगा। जन्मकाल में एक ग्रह उच्च का होने से मनुष्य सुखी होता है; दो होने से श्रेष्ठ होता है; तीन होने से राज-तुल्य होता है; चार होने से स्वयं राजा होता है; और पाँच होने से देवतुल्य होता है। दिलीप के पुत्र-जन्म के समय