पृष्ठ:रघुवंश.djvu/८८

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तीसरा सर्ग।


तो पाँचों ग्रह उच्च के थे। अतएव उसके सौभाग्य का क्या ठिकाना! उसे तो देवताओं के सदृश प्रतापी होना ही चाहिए।

दिशायें प्रसन्न देख पड़ने लगी; वायु बड़ी ही सुखदायक बहने लगी, होम की अग्नि अपनी लपट को दाहनी तरफ़ करके हव्य का ग्रहण करने लगी। उस समय जो कुछ हुआ सभी शुभ-सूचक हुआ। कारण यह कि उस शिशु का जन्म संसार की भलाई के लिए ही था। इसीसे सभी बाते महल की सूचना देने वाली हुई। सूतिका-घर में रानी सुदक्षिणा की शय्या के आस पास, आधी रात के समय, कितने ही दीपक जल रहे थे। शुभ लग्न में उत्पन्न हुए उस नवजात शिशु के चारों तरफ फैले हुए तेज ने उन सब की प्रभा को सहसा मन्द कर दिया। वे केवल चित्र में लिखे हुए दीपों के सदृश निष्प्रभ दिखाई देने लगे।

शिशु के भूमिष्ठ होने पर, रनिवास के सेवकों ने कुमार के जन्म का समाचार जा कर राजा को सुनाया। उनके मुँह से उन अमृत-तुल्य मीठे वचनों को सुन कर राजा को परमानन्द हुआ। उस समय चन्द्रमा के सदृश कान्ति वाले अपने छत्र और दोनों चमरों को छोड़ कर राजा को और कोई भी ऐसी वस्तु न देख पड़ी जिसे वह उनके लिए प्रदेय समझता। एक छत्र और दो चमर, इन तीन चीज़ों को उसने राजचिह्न जान कर अदेय समझा। अन्यथा वह उन्हें भी ऐसा न समझता।

नौकरों से सुत-जन्म-सम्बन्धी संवाद सुन कर राजा अन्तःपुर में गया। वहाँ निर्वात-स्थान के कमल-समान निश्चल नेत्रों से अपने नवजात सुत का सुन्दर मुख देखने वाले दिलीप का आनन्द-चन्द्रमा के दर्शन से बढे हुए महासागर के ओघ के समान-उसके हृदय के भीतर समा सकने में असमर्थ हो गया। उसे इतना आनन्द हुआ कि वह हृदय में न समा सका-फूट कर बाहर बह चला।

राजा ने शीघ्रही सुतोत्पत्ति का समाचार महर्षि वशिष्ठ के पास पहुँ- चाया। क्योंकि वही राजा के कुल-गुरु और पुरोहित थे। तपस्वी वशिष्ठ ने तपोवन से आकर बालक के जातकर्म आदि सारे संस्कार विधिपूर्वक किये। संस्कार हो चुकने पर-खान से निकलने के बाद सान पर चढ़ाये गये हीरे के समान-उस सद्योजात शिशु की शोभा और भी अधिक हो गई।