पृष्ठ:रघुवंश.djvu/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
रघुवंश।

सुतोत्सव के उपलक्ष्य में, प्रमोददायक नाच और गाने के साथ साथ नाना प्रकार के माङ्गलिक बाजों की श्रुति-सुखद ध्वनि भी होने लगी। उसने राजा दिलीप के महलों ही को नहीं व्याप्त कर लिया; आकाश में भी वह व्याप्त हो गई--देवताओं ने भी आकाश में दुन्दुभी बजा कर आनन्द मनाया। पुत्र जन्म आदि बड़े बड़े उत्सवों के समय राजा-महा- राजा कैदियों को छोड़ कर हर्ष प्रकट करते हैं। परन्तु दिलीप इतनी उत्तमता से पृथ्वी की रक्षा और प्रजा का पालन करता था कि उसे कभी किसी को कैद करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उसके शासनकाल में किसी ने इतना गुरुतर अपराध ही नहीं किया कि उसे कैद का दण्ड देना पड़ता। अतएव उसका कैदखाना खाली ही पड़ा था। उसमें एक भी कैदी न था। वह छोड़ता किसे ? इससे, उसने पितरों के ऋण नामक बन्धन से खुद अपने ही को छुड़ा कर कैदियों के छोड़े जाने की रीति निबाही! बेचारा करता क्या ?

राजा दिलीप पण्डित था। शब्दों का अर्थ वह अच्छी तरह जानता था। इस कारण उसने अपने पुत्र का कोई सार्थक नाम रखना चाहा। उसने कहा यह बालक सारे शास्त्रों का तत्व समझ कर उनके, तथा शत्रुओं के साथ युद्ध छिड़ जाने पर उन्हें परास्त करके समर-भूमि के, पार पहुँच सके तो बड़ी अच्छी बात हो। यही सोच कर और 'रवि' धातु का अर्थ गमनार्थक जान कर उसने अपने पुत्र का नाम 'रघु' रक्खा।

दिलीप को किसी बात की कमी न थी। वह बड़ाहो ऐश्वर्यवान् राजा था। सारी सम्पदायें उसके सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं। उन सबका उपयोग करके बड़े प्रयत्न से उसने पुत्र का लालन-पालन आरम्भ किया। फल यह हुआ कि बालक के सुन्दर शरीर के सारे अवयव शीघ्रता के साथ पुष्ट होने लगे।

सूर्य्य की किरणों का प्रतिपदा से प्रवेश प्रारम्भ होने से जिस तरह बाल-चन्द्रमा का बिम्ब प्रति दिन बढ़ता जाता है उसी तरह वह बालक भी बढ़ने लगा। कार्तिकेय को पाकर जैसे शङ्कर और पार्वती को, तथा जयन्त को पाकर जैसे इन्द्र और इन्द्राणी को, हर्ष हुआ था वैसे ही शङ्कर और पार्वती तथा इन्द्र और इन्द्राणी की समता करनेवाले दिलीप और