पृष्ठ:रघुवंश.djvu/९४

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तीसरा सर्ग।


रहेगा ? अतएव, देवेन्द्र! अश्वमेध-यज्ञ के प्रधान अङ्ग इस घोड़े को तू छोड़ दे। वैदिक धर्म का उपदेश करनेवाले-वेद-विहित मार्ग को दिखानेवाले-सर्व-समर्थ सज्जन कभी ऐसे मलिन मार्ग का अवलम्बन नहीं करते। तुझे ऐसा बुरा काम करना कदापि उचित नहीं।”

रघु के ऐसे गम्भीर वचन सुन कर देवताओं के स्वामी इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। आश्चर्यचकित होकर उसने अपना रथ लौटा दिया और रघु की बातों का इस प्रकार उत्तर देना प्रारम्भ किया। वह बोला:-

"राजकुमार! जो कुछ तूने कहा सब सच है। परन्तु बात यह है कि जिनको और सारे पदार्थों की अपेक्षा यश ही अधिक प्यारा है वे उसे शत्रुओं के द्वारा क्षीण होते कदापि नहीं देख सकते। हर उपाय से उसकी रक्षा करना ही वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं। यज्ञों के कारण ही मेरा यश त्रिभुक्न में प्रकाशित है। तेरा पिता बड़े बड़े यज्ञ करके मेरे उसी यश पर पानी फेरने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे पुरुषोत्तम संज्ञा केवल विष्णु की है और जैसे परमेश्वर-संज्ञा एक मात्र त्रिलोचन महादेव की है और किसी की नहीं-उसी तरह शतक्रतु-संज्ञा अकेले एक मेरी है। मुनि जन मुझी को सौ यज्ञ करनेवाला जानते हैं। हम तीनों के ये तीन शब्द और किसी को नहीं मिल सकते। पुरुषोत्तम, महेश्वर और शतक्रतु से हरि, हर और इन्द्र ही का ज्ञान होता है, किसी और का नहीं। परन्तु सौ यज्ञ करके अब तेरा पिता भी शतक्रतु होना चाहता है। इसे मैं किसी तरह सहन नहीं कर सकता। इसी से कपिल मुनि का अनुसरण करके मैंने तेरे पिता के छोड़े हुए इस घोड़े का हरण किया है। इसे मुझसे छीन ले जाने की तुझ में शक्ति नहीं। इस विषय में तेरा एक भी प्रयत्न सफल होने का नहीं। खबरदार! राजा सगर की सन्तति के मार्ग में पैर न रखना; उन्हीं की सा आचरण करके उन्हीं की सी दशा को प्राप्त न होना। छीन छान का यत्न करने से तेरी कुशल नहीं।”

इन्द्र के ऐसे गर्वित वचन सुन कर भी घोड़े की रक्षा करनेवाला रघु विचलित न हुआ। वह ज़रा भी नहीं डरा। हँस कर उसने इन्द्र से कहा:-

"हाँ, यह बात है! यदि तूने सचमुच ही यह निश्चय कर लिया है--यदि तू घोड़े को छोड़ने पर किसी तरह राजी नहीं--तो हथियार