पृष्ठ:रघुवंश.djvu/९५

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रघुवंश।


हाथ में ले। रघु को जीते बिना तू अपने को कृतकृत्य मत समझ। बिना मुझे परास्त किये तू घोड़े को यहाँ से नहीं ले जा सकता।"

इतना कह कर रघु ने पैतड़ा बदला और धन्वा पर बाण चढ़ा कर, तथा आकाश की ओर मुंह करके, वह इन्द्र के सामने खड़ा हो गया। उस समय दाहने पैर को आगे बढ़ाये और बायें को पीछे झुकाये हुए रघु ने, अपने ऊँचे-पूरे और सुदृढ़ शरीर की सुन्दरता से, महादेव को भी मात कर दिया। उसने एक सुवर्णरक्षित बाण इतने ज़ोर से छोड़ा कि वह इन्द्र की छाती के भीतर धंस गया। इस पर, पर्वतों को काट गिराने वाले इन्द्र ने बड़ा क्रोध किया। उसने भी नवीन उत्पन्न हुए मेघों के समुदाय के अल्पकालिक चिह्न, अर्थात् इन्द्र-धनुष, पर कभी व्यर्थ न जाने वाला बाण चढ़ा कर उसे छोड़ दिया। वह, इन्द्र के शरासन से छूट कर, दिलीप-नन्दन रघु की दोनों भुजाओं के बीच, हृदय में, प्रविष्ट हो गया। अब तक इस बाण ने बड़े बड़े भयङ्कर दैत्यों ही का रुधिर पिया था। इससे वह उसी रुधिर का स्वाद जानता था। आज ही उसे मनुष्य के शोणितपान का मौका मिला था। अतएव, कभी पहले उसका स्वाद न जानने के कारण, उसने रघु के रुधिर को मानों बड़े ही कुतूहल से पिया।

दिलीपात्मज कुमार रघु भी कुछ ऐसा वैसा न था। पराक्रम में वह स्वामिकार्तिक के समान था। इन्द्र के छोड़े हुए बाण की चोट खाकर उसने एक और बाण निकाला। उस पर उसका नाम खुदा हुआ था। उसे उसने बड़े ही भीम-विक्रम से छोड़ा। अपने वाहन ऐरावत हाथी को ठुमकारने से जिसकी उँगलियाँ कड़ी हो गई थी और इन्द्राणी ने केसर-कस्तूरी आदि से जिस पर तरह तरह के बेलबूटे बनाये थे, इन्द्र के उसी हाथ में वह बाण भीतर तक घुसता हुआ चला गया। जिस हाथ ने रघु की छाती पर बाण प्रहार किया था उससे रघु ने तत्काल ही बदला ले लिया। उसे इतने ही से सन्तोष न हुआ। उसने मोरपंख लगा हुआ एक और बाण निकाला। उससे उसने इन्द्र के रथ पर फहराती हुई, वज्र के चिह्नवाली, ध्वजा काट गिराई।

यह देख कर इन्द्र के क्रोध का ठिकाना न रहा। देवताओं की राज्य- लक्ष्मी के केश बलपूर्वक काट लिये जाने पर उसे जितना क्रोध होता उतना