पृष्ठ:रघुवंश.djvu/९६

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तीसरा सर्ग।


ही इस घटना से भी हुआ। उसने कहा, यह मेरी रथ-ध्वजा नहीं काटी गई; इसे मैं सुर-श्री की अलकों का काटा जाना समझता हूँ। तब तो बड़ा ही तुमुल युद्ध छिड़ गया। रघु जी-जान से इन्द्र को हरा देने की चेष्टा करने लगा और इन्द्र रघु को। पंखधारी साँपों के समान बड़े हो भयङ्कर बाणं दोनों तरफ़ से छूटने लगे। इन्द्र के बाण आकाश से पृथ्वी की तरफ़ आने लगे और रघु के बाण पृथ्वी से आकाश की तरफ़ सनसनाते हुए जाने लगे। शस्त्रास्त्रों से सजी हुई उन दोनों की सेनायें, पास ही खड़ी हुई, इस भीषण युद्ध को देखती रहीं। अपने ही शरीर से निकली हुई बिजली की आग को जैसे मेघ अपनी ही वारि-धारा से शान्त नहीं कर सकते वैसे ही इन्द्र भी, अस्त्रों की लगातार वृष्टि करने वाले उस असहर तेजस्वी रघु का निवारण न कर सका-उस महापराक्रमी की बाणवर्षा को रोकने में वह समर्थ न हुआ। बात यह थी कि रघु कोई साधारण राजकुमार न था। दिक्पालों के अंश से उत्पन्न होने के कारण उसमें इन्द्र का भी अंश था। फिर भला अपने ही अंश को इन्द्र किस तरह हरा सकता ?

इस प्रकार बड़ी देर तक युद्ध होने के अनन्तर रघु ने एक अर्धचन्द्रा- कार बाण छोड़ा। उसने इन्द्र के धनुष की प्रत्यञ्चा काट दी। इससे उसका धनुष बेकार हो गया। इस प्रत्यञ्चा--इस डोरी--का काटना कठिन काम था। वह बड़ी ही मज़बूत थी। जिस समय चढ़ा कर वह खींची जाती थी उस समय इन्द्र के हरिचन्दन लगे हुए हाथ के पहुँचे पर, उससे, मन्थन के समय सागर का सा, घोर नाद उत्पन्न होता था। परन्तु रघु के बाण से कट कर वही दो टुकड़े हो गई।

धनुष की यह दशा हुई देख इन्द्र अधीर हो उठा। उसका क्रोध बढ़ कर दूना हो गया। बेकार समझ कर धनुष को तो उसने फेंक दिया, और रघु जैसे प्रबल-पराक्रमी शत्र के प्राण लेने के लिए पर्वतों के पंख काटने और अपने चारों तरफ़ प्रभा-मण्डल फैलाने वाले अस्त्र को उसने हाथ में लिया। अर्थात् लाचार होकर, रघु को एकदम मार गिराने के इरादे से, उसने चमचमाता हुआ वज्र उठाया। उसे इन्द्र ने बड़े ही वेग से रघु पर चलाया। रघु की छाती पर वह बड़े जोर से लगा। उसकी चोट से व्याकुल