पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१८५

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दसवाँ सर्ग।
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रामचन्द्र आदि चारों भाइयों का जन्म।

इन्द्र तुल्य तेजस्वी और महा-सम्पत्तिशाली दशरथ को, पृथ्वी का शासन करते, कुछ कम दस हज़ार वर्ष बीत गये। परन्तु जिस पुत्र-नामक प्रकाश की प्राप्ति से शोकरूपी अन्धकार तत्काल ही दूर हो जाता है और जो पूर्वजों के ऋण से उऋण होने का एक मात्र साधन है वह उसे तब तक भी न प्राप्त हुआ। वह सन्तति-हीन ही रहा, उसे कोई पुत्र न हुआ। मथे जाने के पहले समुद्र के सारे रत्न उसके भीतर ही थे; बाहर किसी के देखने में न आये थे। उस समय, अर्थात् रत्नों के बाहर निकलने के पहले, समुद्र जैसा था, दशरथ भी इस समय वैसाही मालूम हुआ। रत्न समुद्र के भीतर अवश्य थे; परन्तु मथे बिना वे बाहर नहीं निकले। इसी तरह दशरथ के भाग्य में सन्तति थी तो अवश्य; परन्तु उत्पन्न होने के लिए वह किसी कारण की अपेक्षा में थी। अथवा यह कहना चाहिए कि वह अपने प्रकट करने वाले किसी योग की प्रतीक्षा में थी। वह योग अब आ गया। दशरथ के हृदय में पुत्र का मुँह देखने की लालसा चिरकाल ही से थी। जब वह आप ही आप न सफल हुई तब उसने शृङ्गी ऋषि आदि जितेन्द्रिय महात्माओं को आदर-पूर्वक निमन्त्रित करके उनसे यह प्रार्थना की कि मैं पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरे ऋत्विज हूजिए। उन्होंने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और यज्ञ आरम्भ कर दिया।

इस समय पुलस्त्य का पुत्र रावण देवताओं को बेहद सता रहा था। अतएव, उसके अन्याय और अत्याचार से तङ्ग आकर वे विष्णु भगवान् के पास—धूप से सताये गये यात्री जिस तरह किसी छायावान् वृक्ष के पास जाते हैं—जाकर उपस्थित हुए। ज्यों ही वे क्षीर-सागर पहुँचे त्योंही भगवान् की योग-निद्रा खुल गई और वे जाग पड़े। देवताओं को वहाँ ठहरने या उन्हें जगाने की आवश्यकता न हुई। देवताओं ने इस बात को