पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२०१

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ग्यारहवाँ सर्ग।

प्रणाम करते समय हिलते हुए, केशकलापवाले उन दोनों भाइयों को महामुनि ने आशीर्वाद दिया और उनकी पीठ पर बहुत देर तक अपना हाथ फेरा—वह हाथ जिसकी हथेली कुश तोड़ते समय कई दफ़े चिर चुकी थी और जिस पर इस घटना के निशान अब तक बने हुए थे।

इसी समय राजा जनक ने, यज्ञ करने के इरादे से, उसकी सारी सामग्री एकत्र करके, विश्वामित्र को भी उत्सव में आने के लिए निमन्त्रण भेजा। यह हाल राम-लक्ष्मण को मालूम हुआ तो, जनक के धनुष के विषय में अनेक आश्चर्य्य-जनक बातें सुन कर, उनके हृदय में भी वहाँ जाने की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। अतएव जितेन्द्रिय, विश्वामित्र ने उन्हें भी अपने साथ लेकर मिथिलापुरी के लिए प्रस्थान कर दिया। चलते चलते, सायङ्काल, वे तीनों एक आश्रम में पहुँचे। वहीं उन्होंने आश्रम के रमणीय वृक्षों के नीचे वह रात बिताई। यह वही आश्रम था जहाँ तपस्विवर गौतम की पत्नी अहल्या की क्षण भर इन्द्र से भेंट हुई थी। तबसे वह शिला की शकल में वहीं पड़ी थी। इस तरह पड़े उसे बहुत काल बीत गया था। परन्तु, रामचन्द्र की पाप-प्रणाशिनी चरणरज की कृपा से, सुनते हैं, वह फिर पूर्ववत् स्त्री हो गई और उसे अपना सुन्दर शरीर फिर मिल गया।

राम और लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जनकपुर पहुँच गये। अर्थ और काम को साथ लिये हुए मूर्त्तिमान् धर्म्म के समान उनके आने का समाचार सुन कर नरेश्वर जनक ने पूजा की सामग्री साथ ली और आगे बढ़ कर उनसे भेंट की। राम-लक्ष्मण को देख कर पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने उन दोनों भाइयों को, आकाश से पृथ्वी पर उतर आये हुए पुनर्वसुओं के सदृश, समझा। उनकी सुन्दरता पर वे मोहित हो गये और बड़े चाव से नेत्रों द्वारा उन्हें पीने से लगे। उस समय उन्होंने, अपने इस काम में, पलक मारने को बहुत बड़ा विघ्न समझा। उनके मन में हुआ कि यदि पलकें न गिरतीं तो इन राजकुमारों को निर्निमेष-दृष्टि से लगातार देख कर हम अपनी दर्शनेच्छा को अच्छी तरह पूर्ण कर लेते। पलक मारने से वह पूर्ण नहीं होती; कसर रह जाती है।

यज्ञ का अनुष्ठान—उस यज्ञ का जिसमें यूप नामक खम्भों की आवश्यकता होती है—समाप्त होने पर, कुशिकवंश की कीर्त्ति बढ़ानेवाले विश्वामित्र ने, मौक़ा अच्छा देख, मिथिलेश से कहा:—"रामचन्द्र आपका धनुष देखना चाहते हैं। दिखा दीजिए तो बड़ी कृपा हो"।

विश्वामित्र के मुँह से यह सुन कर जनकजी सोच-विचार में पड़ गये। रामचन्द्र बड़े ही प्रसिद्ध वंश के बालक थे। रूप भी उनका नयना-