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रघुवंश।

तो निद्रा-प्रिय हैं। यह समय आपके सोने का था, युद्ध करने का नहीं। आपके भाई ने आपको कुसमय में जगा कर वृथा ही इतना कष्ट दिया"। जान पड़ता है, यही सोच कर उन्होंने कुम्भकर्ण के लिए दीर्घनिद्रा बुला दी—उसे उन्होंने सदा के लिए सुला दिया।

करोड़ों बन्दरों की सेना में और भी न मालूम कितने राक्षस गिर कर नष्ट हो गये। कटे हुए राक्षसों के रुधिर की नदियाँ बह निकलीं। उन नदियों में गिरी हुई युद्ध के मैदान की रज की तरह, कपि-सेना में मर कर गिरे हुए राक्षसों का पता तक न चला कि वे कहाँ गये और उनकी क्या गति हुई।

राक्षसों की इतनी हत्या हो चुकने पर, रावण फिर युद्ध करने के लिए घर से निकला। उसने निश्चय कर लिया कि आज या तो रावगा ही इस संसार से सदा के लिए कूच कर जायगा या राम ही। उस समय देवताओं ने देखा कि रामचन्द्र तो पैदल खड़े हैं, पर रावण रथ पर सवार है। यह बात उन्हें बहुत खटकी। अतएव, इन्द्र ने कपिल वर्ग के घोड़े जुता हुआ अपना रथ उनकी सवारी के लिए भेज दिया। मार्ग में आकाश-गङ्गा की लहरों का स्पर्श करके आई हुई वायु ने इस रथ की ध्वजा के वस्त्र को ख़ूब हिलाया। एक क्षण में यह विजयी रथ रामचन्द्र के सामने आकर खड़ा हो गया। इन्द्र के सारथी मातलि के हाथ के सहारे रामचन्द्र उस पर सवार हो गये। रथ के साथ इन्द्र का कवच भी मातलि लाया था। उसे उसने रामचन्द्र को पहना दिया। यह वही कवच था जिस पर असुरों के अस्त्र कमल-दल की असमर्थता को पहुँचे थे। कमल का दल बहुत ही कोमल होता है। उसे फेंक कर मारने से बिलकुल ही चोट नहीं लगती। असुर लोग जब इन्द्र पर अस्त्र चलाते थे तब इस कवच की कृपा से इन्द्र पर उनका कुछ भी असर न होता था। वे कमल-दल के सदृश कवच पर लग कर गिर पड़ते थे। इसी कवच को शरीर पर धारण करके रामचन्द्रजी रावण से युद्ध करने के लिए तैयार हो गये।

रामचन्द्र और रावण, दोनों, एक दूसरे के आमने सामने हुए। राम ने रावण को देखा और रावण ने राम को। अपना अपना बल-विक्रम दिखाने का अवसर बहुत दिन के बाद आने से राम-रावण का युद्ध सफल सा हो गया। प्रत्यक्ष युद्ध न करने से अभी तक उन दोनों का वैर-भाव निष्फल सा था। अब दो में से एक की हार के द्वारा उसका परिणम मालूम होने का मौक़ा आ गया। रावण के पुत्र, बन्धु-बान्धव और सेनानी आदि मर चुके थे। अतएव, यद्यपि वह अकेला ही रह गया था—पहले की तरह