पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२४७

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चौदहवाँ सर्ग।


एक दिन सीताजी को अपने पास बिठा कर रमणशील रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक उनसे पूछा:—

"प्रिये वैदेहि! तेरा मन, इस समय, किसी वस्तु-विशेष की इच्छा तो नहीं रखता? तुझे अपने मन का अभिलाष, सङ्कोच छोड़ कर, मुझ पर प्रकट करना चाहिए।

इस पर सीताजी ने कहा:—

"भागीरथी के तीरवर्ती तपोवनों का फिर एक बार मैं दर्शन करना चाहती हूँ। मेरा जी चाहता है कि मैं फिर कुछ दिन वहाँ जाकर रहूँ। आहा! वे कैसे मनोहारी तपोवन हैं। कुश वहाँ बहुत होते हैं, उनसे उन तपोवनों की भूमि हरी दिखाई देती है। जङ्गल के हिंस्र पशु, मांस खाना छोड़ कर, मुनियों के बलि-वैश्वदेव-कार्य्य में उपयोग किये जाने वाले साँवा, कोदों और धान आदि जङ्गली धान्य, वहाँ, आनन्द से खाया करते हैं। वहाँ रहने वाले मुनियों की कितनी ही कन्यकाओं से मेरी मैत्री भी है। अतएव, मेरे मनोविनोद का बहुत कुछ सामान वहाँ है। इसीसे मेरा मन वहाँ जाने को ललचाता है"।

रामचन्द्र ने कहा:—

"बहुत अच्छा। मैं तेरी इच्छा पूर्ण कर दूँगा"

सीता का मनोरथ सफल कर देने का वचन देकर रामचन्द्रजी, एक सेवक को साथ लिये हुए, अयोध्या का दृश्य देखने के इरादे से, अपने मेघस्पर्शी महल की छत पर चढ़ गये। उन्होंने देखा कि अयोध्या में सर्वत्र ही प्रसन्नता के चिह्न वर्त्तमान हैं। राज-मार्ग की दुकानों में लाखों रुपये का माल भरा हुआ है; सरयू में बड़ी बड़ी नावें चल रही हैं; नगर के समीपवर्ती उपवनों और बाग़ीचों में बैठे हुए विलासी पुरुष आनन्द कर रहे हैं।

इस दृश्य को देख कर शेषनाग के समान लम्बी भुजाओं वाले और विश्व-विख्यात शत्रु का संहार करनेवाले, विशुद्ध-चरित, रामचन्द्रजी बहुत ही प्रसन्न हुए। मौज में आकर, उस समय, वे भद्र नामक अपने विश्वस्त सेवक से अयोध्या का हाल पूछने लगे। उन्होंने कहाः—

"भद्र! कहो, क्या ख़बर है? मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं? आज कल नगर में क्या चर्चा हो रही है?"

इस प्रकार रामचन्द्र के आग्रहपूर्वक बार बर पूछने पर भद्र बोला:—

"हे नरदेव, अयोध्या के निवासी आपके सभी कामों की प्रशंसा करते