पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२६७

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पन्द्रहवाँ सर्ग।

खड़ी ही रहीं। सर्वत्र निस्तब्धता हो जाने पर वाल्मीकिजी ने सीताजी को आज्ञा दी:—

"बेटी! तेरे चरित के सम्बन्ध में अयोध्यावासियों को जो संशय उत्पन्न हुआ है उसे, अपने पति के सामने ही, दूर कर दे"।

वाल्मीकिजी की आज्ञा सुनते ही उनका एक शिष्य दौड़ा गया और पवित्र जल ले आया। उससे आचमन करके सीताजी, इस प्रकार, सत्य वाणी बोलीं:—

"हे माता! हे मही-देवी! अपने पति के सम्बन्ध में यदि मुझसे कर्म से तो क्या, वाणी और मन से भी, कभी व्यभिचार न हुआ है। तो तू इतनी कृपा कर कि अपने भीतर मुझे समा जाने दे"!

परम सती सीताजी के मुँह से ये शब्द निकले ही थे कि तत्काल ही पृथ्वी फट गई और एक बहुत बड़ा गढ़ा हो गया। उससे प्रखर प्रकाश का एक पुञ्ज, बिजली की प्रभा के सदृश, निकल आया। उस प्रभा-मण्डल के भीतर, शेषनाग के फनों के ऊपर, एक सिंहासन रक्खा हुआ था। उस पर समुद्ररूपिणी मेखला धारण करनेवाली प्रत्यक्ष पृथ्वी देवी विराजमान थीं। उस समय सीताजी अपने पति की तरफ़ इकटक देख रही थीं। उन्हें, उसी दशा में, उनकी माता पृथ्वी ने अपनी गोद में उठा लिया और लेकर पाताल में प्रवेश कर गईं। रामचन्द्रजी उन्हें सीता को ले जाते देख—"नहीं नहीं"—कहते ही रह गये।

उस समय धन्वाधारी रामचन्द्रजी को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने पृथ्वी से सीताजी को छीन लाना चाहा। परन्तु गुरु ने, दैव शक्ति की प्रबलता का वर्णन करके, और, बहुत कुछ समझा बुझा कर, उनके कोप को शान्त कर दिया।

यज्ञ समाप्त होने पर, आये हुए ऋषियों और मित्रों का ख़ूब आदर-सत्कार करके रामचन्द्र ने उन्हें अच्छी तरह विदा किया, पर लव-कुश को उन्होंने अपने ही यहाँ रख लिया। जिस स्नेह की दृष्टि से वे अब तक सीताजी को देखते थे उसी दृष्टि से वे अब उनके पुत्र लव-कुश को देखने लगे।

भरतजी के मामा का नाम युधाजित् था। उन्होंने प्रजापालक रामचन्द्रजी से यह सिफ़ारिश की कि सिन्धु देश का ऐश्वर्य्यशाली राज्य भरत को दे दिया जाय। रामचन्द्रजी ने इस बात को मान कर भरत को सिन्धु-देश