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रघुवंश।

हिलता हुआ हार धारण किये हुए वह भी अपनी नारियों के साथ जलविहार करने लगा। उस समय वह ऐसा मालूम हुआ जैसे उखाड़ी हुई कमलिनी को कन्धे पर डाले हुए जङ्गली हाथी, हथिनियों के साथ, जल में खेल रहा हो। जब वह सुस्वरूप और कान्तिमान राजा भी जल में कूद कर विहार करने लगा तब उन सौन्दर्य्यवती स्त्रियों की सुन्दरता और भी बढ़ गई—उसके संयोग से उनकी शोभा और चारुता चौगुनी हो गई। मोती स्वभाव ही से सुन्दर होते हैं। तिस पर यदि कहीं उनसे चमकते हुए इन्द्रनीलमणि का संयोग हो जाय तो फिर क्या कहना है। राजा को पाकर वे विशालनयनी नारियाँ दूने उत्साह से जलक्रीड़ा करने लगीं। सोने की पिचकारियों में लाल-पीला रङ्ग भर भर कर वे बड़े प्रेम से राजा को भिगोने लगीं। जिस समय कुश पर, इस प्रकार, सब तरफ़ से रङ्ग पड़ पड़ कर नीचे गिरने लगा उस समय उसकी शरीर-शोभा बहुत ही बढ़ गई—ऐसा मालूम होने लगा जैसे गिरिराज हिमालय से गेरू आदि धातु मिले हुए झरने झर रहे हों। रनिवास की स्त्रियों के साथ उसने उस श्रेष्ठ सरिता में घंटों विहार करके, अप्सराओं के साथ आकाश-गङ्गा में विहार करने वाले सुरेश्वर इन्द्र को भी मात कर दिया।

इस जल-विहार में एक दुर्घटना हो गई। जिस अलौकिक आभूषण को रामचन्द्रजी ने महामुनि अगस्त्य से पाया था वह इस समय कुश के पास था। जल-विहार करते समय वह उसे पहने हुए था। रामचन्द्रजी ने राज्य के साथ ही उसे भी कुश के हवाले कर दिया था। दैवयोग से वह नदी में गिर कर डूब गया और कुश ने न जाना। यह एक प्रकार का भुजबन्द था। इसमें यह गुण था कि इसके बाँधनेवाले को सामने समर में कोई भी न हरा सकता था।

स्त्रियों के साथ इच्छापूर्वक जल-विहार करके कुश तीर पर लगे हुए अपने तम्बू में लौट आया। वहाँ आते ही कपड़े तक वह बदल न पाया था कि उसे अपनी भुजा, उस दिव्य आभूषण से सूनी, देख पड़ी। उस आभूषण का इस तरह खो जाना कुश से न सहा गया। इसका कारण लोभ न था। लोभ तो उसे छू तक न गया था। क्योंकि वह विद्वान् और समझदार था—तुच्छ फूल और बहुमूल्य भूषण को वह तुल्य समझता था। बात यह थी कि वह आभूषण उसके पिता रामचन्द्रजी का धारण किया हुआ था और युद्ध में विजय को वशीभूत करने की शक्ति रखता था। इसीसे उसे उसके खो जाने का दुःख हुआ। नदी में घुस कर डुबकी लगानेवाले सैकड़ों मछुवों को उसने तत्काल