पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२९३

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सत्रहवाँ सर्ग।

जो कह दिया सो कह दिया; जो दे दिया सो दे दिया। हाँ, एक बात में उसने इस नियम का उल्लङ्घन अवश्य किया। वह बात यह थी कि शत्रुओं को उखाड़ कर उन्हें उसने फिर जमा दिया। चाहिए यह था कि जिनको एक दफ़े वह उखाड़ देता उन्हें फिर न जमने देता। परन्तु, इस सम्बन्ध में, उसने अपने नियम के प्रतिकूल काम करने ही में अपना गौरव समझा। क्योंकि, शत्रु का पराजय करके उसे फिर उसका राज्य दे देना ही अधिक महत्ता का सूचक है। योवन, रूप और प्रभुता—इनमें से एक के भी होने से मनुष्य मतवाला हो जाता है, उसमें मद आ जाता है। परन्तु अतिथि में यद्यपि ये तीनों बातें मौजूद थीं तथापि वे सब मिल कर भी उसके मन में मद न उत्पन्न कर सकीं।

इस प्रकार उसकी प्रजा का प्रेम, उसके अनुपम गुणों के कारण, प्रति दिन, उस पर बढ़ता ही चला गया। फल यह हुआ कि नया पाधा जैसे अच्छी ज़मीन पाने पर अपनी जड़ जमा लेता है वैसे ही अतिथि ने, नया राज्य पाने पर भी, अपनी प्रजा के हृदय में अपने लिए दृढ़तापूर्वक स्थान प्राप्त कर लिया। फिर क्या था। प्रजा का प्यारा हो जाने से वह शत्रुओं के लिए दुर्जय हो गया।

अतिथि ने बाहरी वैरियों की तादृश परवा न की। उसने सोचा कि बाहरी शत्रु दूर रहते हैं और सदा शत्रुता का व्यवहार नहीं करते। फिर यह भी नहीं कि सभी बाहरी राजा शत्रुवत् व्यवहार करें। अतएव उनको वशीभूत करने की कोई जल्दी नहीं। जल्दी तो आभ्यन्तरिक शत्रुओं को वशीभूत करने की है। क्योंकि वे शरीर के भीतर ही रहते हैं और सब के सब सदा ही शत्रु-सदृश व्यवहार करते हैं। यही समझ कर पहले उसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पार मत्सर नामक इन छः शत्रुओं को जीत लिया।

लक्ष्मी यद्यपि स्वभाव ही से चञ्चल है; वह एक ही जगह बहुत दिन तक नहीं रहती। तथापि सदा प्रसन्न रहने वाले हँसमुख अतिथि का सा मनमाना आश्रय पर—कसौटी पर सोने की रेखा के समान—वह उसके यहाँ अचल हो गई। अतिथि को छोड़ कर उसने और कहीं जाना ही न चाहा।

अतिथि राजनीति का भी उत्तम ज्ञाता था। बिना वीरता दिखाये ही कूट-नीति से काम निकालने को उसने निरी कायरता समझा और बिना नीति का अवलम्बन किये केवल वीरता से कार्य्यसिद्धि करने को उसने पशुओं का सा व्यवहार समझा। अतएव जब ज़रूरत पड़ी तब उसने इन दोनों ही के संयोग से काम निकाला—धीरता भी दिखाई और नीति