मित्र ही नहीं, शत्रु भी उसे प्यार की दृष्टि से देखने लगे। मीठे वचनों की महिमा ही ऐसी है। उनसे, और तो क्या, एक बार डरे हुए हिरन भी वश में कर लिये जा सकते हैं। इस राजा का नाम अहीनगु था। इसके भुजबल में ज़रा भी हीनता न थी। यह बड़ा बली था। हीनजनों (नीचों) की इसने कभी सङ्गति न की। उन्हें इसने सदा दूर ही रक्खा। इस कारण, युवा होने पर भी, यह अनेक अनर्थकारी व्यसनों से विहीन रहा। इस प्रबल पराक्रमी राजा ने न्यायपूर्व्वक सारी पृथ्वी का शासन किया। यह बड़ा ही चतुर था। मनुष्यों के पेट तक की बातें यह जान लेता था। साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों राजनीतियों का सफलतापूर्वक प्रयोग करके यह चारों दिशाओं का स्वामी बन बैठा। पिता देवानीक के पश्चात् पृथ्वी पर इसका अवतार आदि-पुरुष भगवान् विष्णु के अवतार के समान था।
शत्रुओं को हरानेवाले अहीनगु की परलोकयात्रा हो जाने पर उसके स्वर्गलोक चले जाने पर—राज-लक्ष्मी उसके पुत्र पारियात्र की सेवा करने लगी। उसका सिर इतना उन्नत था कि पारियात्र नामक पर्व्वत की उँचाई को भी उसने जीत लिया था। इसी से उसका नाम पारियात्र हुआ।
उसके बहुत ही उदारशील पुत्र का नाम शिल हुआ। उसकी छाती शिला की पटिया के समान विशाल थी। उसने अपने शिलीमुखों (बाणों) से अपने सारे बैरियों को जीत लिया। तथापि, यदि किसी ने उसकी वीरता की प्रशंसा की तो उसे सुन कर उसने शालीनता से सदा ही अपना सिर नीचा कर लिया। उसके प्रशंसनीय पिता पारियात्र ने उसे विशेष बुद्धिमान देख कर, तरुण होते ही, युवराज बना दिया। उसने मन में कहा कि राजा तो एक प्रकार के बँधुवे हैं। राजकीय कार्यों में वे सदा बँधे से रहते हैं। इस कारण उन्हें सुखोपभोग के लिए कभी छुट्टी ही नहीं मिलती। अतएव कुमार शिल को राज्य का भार सौंप कर आप अनेक प्रकार के सुख भोगने लगा। चिरकाल तक वह विषयों के उपभोग में लगा रहा। तिस पर भी उसकी तृप्ति न हुई। उसकी सुन्दरता और शक्ति क्षीण न हुई थी कि जरा (वृद्धावस्था) ने उस पर आक्रमण किया। औरों के साथ राजा को बिहार करते देख जरा को ईर्ष्या उत्पन्न हुई। जरा में स्वयं विहार करने की शक्ति न थी। अतएव उसकी ईर्ष्या व्यर्थ थी। तथापि, फिर भी, जरा से न रहा गया—दूसरों का सुख उससे न देखा गया। फल यह हुआ कि पारियात्र को औरों से छुड़ा कर उसे वह परलोक को हर ले गई। वह बुढ़ापे का शिकार हो गया।