पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/३८

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भूमिका।

प्रथम अङ्क में दुष्यन्त और शकुन्तला के बीच कामुक और कामिनी के नाते जो प्रीति हुई है उसकी असारता, और अन्तिम अङ्क में भरत के माता-पिता के रूप में जो प्रीति हुई है उसकी सारता कवि ने दिखाई है। पहला अङ्क चमक-दमक से भरा हुआ है। कहीं एक संन्यासी की कन्या खड़ी है; कहीं उसकी दो सखियाँ इधर उधर दौड़ रही हैं। कहीं वन की लतायें नवीन पल्लवों और कलियों से युक्त अपूर्व शोभा धारण कर रही हैं; कहीं वृक्ष की ओट से राजा इन सब दृश्यों को देख रहा है। परन्तु, अन्तिम अङ्क में, मरीचि के आश्रम का दृश्य कुछ और ही है। वहाँ पर शकुन्तला भरत की माता और धर्म्म की प्रत्यक्ष-मूर्त्ति की तरह निवास करती है। वहाँ कोई सखी-सहेली वृक्षसेचनादि नहीं करती और न कोई हरिण के छोटे छोटे बच्चों ही को खिलाती है। वहाँ केवल एक छोटा लड़का अपने भोले भाले अनोखे ढंग से आश्रम को सुशोभित कर रहा है। वह उस आश्रम के वृक्ष, लता, फल, फूल आदि सबके सौन्दर्य्य और माधुर्य्य को अपने में ही एकत्र सा कर लेता है। वहाँ की स्त्रियाँ भी उसी चञ्चल बालक के लाड़-प्यार में लगी रहती हैं। जब शकुन्तला रङ्गशाला में आती है तब शुद्धहृदया, प्रायश्चित्तपरायणा, पीतवदना और मलिनवसना देख पड़ती है। बहुत दिनों के प्रायश्चित्त ने दुष्यन्त के पहले मिलाप के कलङ्क को एकदम धो डाला है। अब वह वात्सल्य-भाव से पूर्ण है। अब वह माता और गृहिणी में परिणत हो गई है। ऐसी दशा में कौन उसको अस्वीकार कर सकता था?

शकुन्तला और कुमारसम्भव दोनों में कवि ने साफ़ साफ़ यह दिखा दिया है कि धर्मावलम्बी होने से सौन्दर्य्य चिरस्थायी होता है, संयम-शील और हितवर्द्धक प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है; निग्रह न होने से वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। महाकवि कालिदास ने केवल विषय-विलास को ही प्रेम का उद्देश नहीं माना। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि प्रेम का यथार्थ उद्देश परोपकार है। इस नाटक से यह शिक्षा मिलती है कि दाम्पत्य-प्रेम जब तक अपने ही में सङ्कुचित रहता है; जब तक वह परोपकारी नहीं होता, जब तक समाज, पुत्र, कन्या आदि पर उसका असर नहीं पड़ता—तब तक उसे निष्फल और क्षणभङ्गुर समझना चाहिए।

भारतवासियों के दो अनोखे सिद्धान्त हैं—एक हितकारी गृहस्थाश्रम का बन्धन, दूसरा आत्मा की स्वतन्त्रता। संसार की कई एक जातियों, धर्मों और देशों से भारतवर्ष का सम्बन्ध है। वह किसी को अलग नहीं कर सकता। परन्तु तपस्या के उच्च आसन पर यह अकेले ही शोभित है। कालिदास ने इन दोनों सिद्धान्तों का घनिष्ठ सम्बन्ध अच्छी तरह दिखाया है। उन्होंने मरीचि के आश्रम के छोटे छोटे लड़कों का सिंह के बच्चों के