पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/९३

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चौथा सर्ग।

की सेवा करना अपना कर्तव्य समझा। स्तुति-पाठ करने वाले बन्दीजनों के मुख का आश्रय लेने वाली वाग्देवी उस स्तुतियोग्य राजा की, समय समय पर, जो सार्थक स्तुतिरूप सेवा करती थी वह सरस्वती ही की की हुई सेवा तो थी। वैवस्वत-मनु से लगा कर अनेक माननीय महीप यद्यपि पृथ्वी का पहले भी उपभाग कर चुके थे, तथापि, रघु के राजा होने पर, वह उस पर इतनी प्रीति करने लगी जैसे और किसी राजा ने पहले कभी उसका उपभोग ही न किया हो। लक्ष्मी और सरस्वती की तरह पृथ्वी भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त हो गई।

रघु की न्यायशीलता बड़ी ही अपूर्व थी। जिस अपराधी को जैसा और जितना दण्ड देना चाहिए वैसा ही और उतना ही दण्ड देकर अपने सारे प्रजा-जनों के मन उसने, न बहुत उष्ण और न बहुत शीतल मलयानिल की तरह, हर लिये। वह सब का प्यारा हो गया। आम में फल आ जाने पर लोगों की प्रीति जिस तरह उसके फूलों पर कम हो जाती है—लोग उन्हें भूल सा जाते हैं—उसी तरह रघु में उदारता, स्थिरता, न्यायपरता आदि गुणों की अधिकता देख कर प्रजा की भक्ति उसके पिता के विषय में कम हो गई। पुत्र को पिता से भी अधिक गुणवान् देख कर लोगों को दिलीप के गुणों का विस्मरण सा हो गया।

राजनीति के पारगामी पण्डितों ने उसे सब तरह की नीतियों की शिक्षा दी। उन्होंने उसे धर्मनीति भी सिखाई और कूटनीति भी। ज्ञान तो उसने भली और बुरी, दोनों प्रकार की, नीतियों का प्राप्त कर लिया; परन्तु अनुसरण उसने केवल धर्मनीति का ही किया। सुमार्ग का ग्रहण करके कुमार्ग को उसने सर्वथा त्याज्य ही समझा।

पृथ्वी आदि पञ्च महाभूतों के गन्ध आदि जो स्वाभाविक गुण हैं वे पहले से भी अधिक हो गये। रघु के सदृश अलौकिक राजा के पुण्य-प्रभाव से उनकी भी उन्नति हुई। इस नये राजा को राजगद्दी मिलने पर सभी बातों में नवीनता सी आगई। समस्त संसार को प्रमुदित करने के कारण जैसे निशाकर का नाम चन्द्र हुआ है, अथवा सभी वस्तुओं को अपने प्रताप से तपाने के कारण जैसे सूर्य्य का नाम तपन पड़ा है—और इनके ये नाम यथार्थ भी हैं—उसी तरह प्रजा का निरन्तर अनुरञ्जन करने के कारण रघु के लिए 'राजा का शब्द भी सार्थक हो गया। सचमुच ही वह यथार्थ राजा था। इसमें सन्देह नहीं कि उसके नेत्र बहुत बड़े बड़े थे—वे कानों तक फैले हुए थे—परन्तु इन बड़े बड़े नेत्रों से वह नेत्रवान् न था। शास्त्रों

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