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(पंद्रहवां
रज़ीयाबेगम।

पंद्रहवां परिच्छेद

यह कैसा आशिक!!!

"ज़प्त नालों को करूं हरदम कि रोऊं आह को।
मुझसे अब छिपती नहीं, कबतक छिपाऊं चाह को॥"

(ज़फ़र)

जिस रात को सौसन और याकूब में उस तरह की बातें होती थी, उसी रात को दूसरी ओर कुछ और ही तमाशा हो रहा था; इस लिये सौसन और याकूब को तो थोड़ी देर के लिये वहीं छोड़ दीजिए और आइए, पाठक ! ज़रा दूसरे तमाशे की कैफ़ियत देखी जाय!

जिस खाबग़ाह का बयान हम पहिले कर आए हैं, उसीमें छपरखट पर रज़ीया सोई हुई थी और नीचे फर्श पर ज़ोहरा खुर्राटे ले रही थी। इतने ही में अपने चेहरे पर नकाब डाले और लाल पोशाक से अपने सारे बदन को छिपाए हुए कोई शख्स दबे पैरों, उस (रज़ीया ) की ख़ाबगाह के अन्दर आया और जेब में से एक शीशी निकाल और उसमें से दो बूंद अर्क एक रूमाल के कोने में लगा, उसने उस रूमाल को बेगम की नाक पर रक्खा । रूमाल के रखते ही बेगम एक छींक मार कर बेहोश होगई। फिर उस नकाव. पोश ने उसी तरह जोहरा को बेहोश किया और तब उसने उसी छपरखट की चादर में बेगम की गठरी बांधी और उस गठरी को उठा कर वह शख्स उस दर्वाजे से बाहर हो गया, जिधर से एक रोज़ ज़ोहरा याक ब को ख़ाबग़ाह में लाई थी।

उस दर्वाजे से बाहर होतेही उस नकाबपोश ने एक ओर की दीवार में कोई कल दबाकर दीवार के एक पत्थर को हटाया और उस राह से भीतर होकर फिर उसने वहांके पत्थर को ज्यों का त्यों बराबर कर दिया। फिर वह बेगम के गट्ठर को लिये हुए एक ऐसे सजे सजाए और आलीशान कमरे में पहुंचा, जो सजावट और वजहदारी में बेगम की ख़ाबग़ाह से कहीं बढ़ कर था। वह कमरा