पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/७५

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहला।


कि दोपहर के पेश्तर ही से मैं यहां आकर पड़ा था । मेरी आंख लग गई थी, इसी बजह से यह कुसूर हुआ, वर न बन्दे की मजाल जो इस वक़्त तक बाग़ के अन्दर ठहरे रहने का इरादा भी करता।"

ज़ोहरा,-"खैर, कुछ भी हो, मगर तुम्हारा यह उज्र काबिल यकीन नहीं है; पल, अब तुम फ़ौरन बेगम साहिबा के रूबरू पेश किए जाओगे और अपनी शरारत के बमुजिब सजा पाओगे।"

अयूब,-( अपना मिर पकड़ कर और जमीन में बैठकर ) "बी, जोहरा! आप बेगम साहिबा की प्यारी बांदी हैं, अगर आप चाहें तोमुझ जैसे एक नहीं-हजारों गुनहगारों की जान बचा सकती हैं । खुदारा, ज़रा रहम् कीजिए; कुसूर मुआफ़ कीजिए और खुदा के वास्ते मेरी जान बचाइए; आइन्दे ऐसी गफलत हर्गिज़ न करूंगा।"

ज्यों ज्यों बेचारे अयूब को घबराहट बढ़ती जाती थी, त्यो त्यों ज़ोहरा मन ही मन खुश होती जाती थी । जब उसने अयूब को एक दम अपने कब्जे में पाया तो इस ढंग की बातें करनी शुरू करदी,-

"चेखुश! तुम्हारे खातिर में अपनी भी जान खतरे में डालूं तुमने मुझे निरी नादान बच्ची समझा है क्या ! वल्लाह इनके लिये मैं भी अपना सर गवाऊंगी!"

अयूब उसके सामने घुटने टेक कर बैठ गया और दोनों हाथों को ऊंचा करके कहने लगा,-

"लिल्लाह ! अब रहम कीजिए; जिसमें मेरी जान बचे, वह कीजिए मैं आपके कदमों पर अपना सर रखता हूँ।

यों कह कर वह जोहरा के पैरों पर गिरा चाहता था कि जोहरा झिझक कर ज़रा पीछे हट गई और कड़ककर बोली,-

"ख़र्बदार ! अगर मेरे पैरों को छुआ है तो तुम्हारे हक में बेहतर न होगा।"

अयूब,-"खुदा के वास्ते अब रहम कीजिए । ज़रा गौर तो कीजिए कि मेरे मारे जाने से आपको क्या फायदा होगा! चुनांचे जहां तक मुमकिन हो, मुझे बचाइए।"

जोहरा,-"यह गैर मुमकिन है।"

अयूब,-(नाउम्मीदी से ) "तो क्या अब मैं किसी तरह नहीं