पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/८८

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(ग्यारहवां
रज़ीयाबेगम।


भी इस तरीके पर कि यह बात हमीशा पोशीदा रहे और किसीको इसकी ज़रा भी ख़बर न होने पावे।"

ज़ोहरा,-"वल्लाह, हुजूर! यह तो मिहायत ही उम्दा तरीक़ा है और इसमें वस्फ़ यह है कि शादी से बढ़कर आज़ादी रहती है और तबीयत में नफ़रत को जगह नहीं मिलती। खैर, तो हुजूर ने किस किस्मतवर शख़्स को अपनी ख़िदमत के लिये चुना है?"

रज़ीया,-" क्या तू ज़वांमद याकूब को इस काबिल नहीं समझती?"

ज़ोहरा,- ( फड़क कर) अल्हम्द लिल्लाह ! क्यों न हो, हुजूर! हज़त ने तो ऐसे ला मिसाल बहादुर और खूबरू शख़्स को. चुना है कि जिसका जोड़ शायद दुनिर्या के परदे पर मयस्सर न होगा!!!"

रज़ीया,-"बेशक अब मुझे निहायत खुशी हासिल हुई कि तूने भी याकब ही को पसंद किया।"

ज़ोहरा,-" जी हां, हुजूर! आपकी खिदमत लायक शख्स याकूब से बढ़कर दूसरा मिलना मोहाल है।"

रज़ीया,-"तो क्या तू कोई ऐसा ढंग निकाल सकती है कि जिस में याकूब के साथ मेरी राहरस्म पैदा हो और इस बात की ख़बर किसी चौथे के कानों तक न पहुंचे?"

ज़ोहरा,-" हुजूर ! ऐसा होना तो बहुत आसान है; मगर वक़्त और जगह ऐसी होनी चाहिए, जहां उस मौके पर किसी गैर शख्स का गुज़र न हो।"

रज़ीया,-"अच्छा; इस बारे में मैं आज दिन भर गौर करूंगी और शाम को तुझसे, जैसी राय दिल के साथ करार पाएगी, उस का हाल कहूंगी।"

जोहरा,-" बहुत खूब ! ( ठहरकर ) अय, हुजूर ! अगर जान की अमां पाऊं तो कुछ अर्ज करूं?"

रजीया,-" प्यारी, जोहरा ! अब मैं तेरी जान को अपनी जान से कम नहीं समझती, इस वास्ते अबसे जो तेरा जी चाहे, बिला खौफ़ और बे तकल्लुफ़ी के साथ कहा कर!”

जोहरा,-(बेगम के पैरों पर सिर रख कर )" हुजूर! याकूब