पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१००

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जा हित माँगत छमा न सो छल छाँड़त नैकह । निज मुख-पानिप संग बहावत बिसद बिबेकहु ॥ अरे मूढमति भई सकल बसुधा जब मेरी । काकै धन तब अधम देह बिकिहै कहु तेरी" ॥ २४ ॥ यह सुनि नृपति सभीति सोचि करि नीति-गुनावन । बोले बचन बिनीत बिसद इहि रीति सुहावन ॥ "करि कुबेर सौं जुद्ध आनि धन सुद्ध चुकहै " । बोले मुनि "तब तो जब अस्त्र तुम्हें हम दैहै " ॥ २५॥ यह सुनि पुनि नरनाह सोच के सिंधु समाने । बहु बिधि सोधि मुखाग्र बचन-मुकता ये आने । "सब सास्त्रनि सौं सिद्ध लोक-बाहिर जो कासी । निज त्रिसूल पर धारत जाहि संभु अबिनासी ॥ २६ ॥ अघ-प्रोपनि करि दूर मोच्छ-पद बरबस दैनी । कहा कठिन जौ होहि हमारेहु ऋन की छैनी ॥ दारा सुअन समेत जाइ हम तहाँ बिकैहैं। एक मास की अवधि दयासागर जी दैहै" ॥ २७ ॥ सुनि भूपति के बचन भए मुनि प्रथम चकित अति । लगे प्रसंसा करन मनहिँ मन बहुरि जथामति ॥ "धन्य धर्म-दृढ़ता हरिचंद अमंद तिहारी । साँचहि तुम तिहुँ लोक माहि नर-गौरव-कारी" ॥२८॥