पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०२

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चले प्रजागन संग लागि दृग बारि बिमोचत । मंत्रि आदि सब मौन मलीन-बदन-जुत सोचत ।। पुर बाहिर है भूप सबहिं सब विधि समुझाया । निज पन-पालन काँ आवस्यक धर्म जतायौ ॥ ३४॥ जद्यपि समुझावन सौँ लयौ तोष कछु नाही। पै लौटे लूटे से गुनि आज्ञा मन माहीं ॥ सहत बिबिध संताप दाप आतप कौ भारी। सुत-पत्नी-जुत चले कासिका सत-व्रत-धारी ॥ ३५ ॥