पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०३

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तीसरा सर्ग पहुँचि कासिका मैं विश्राम नैकुं नृप लीन्ह्यौ । स्नानादिक करि चंदचूर को वंदन कीन्ह्यौ । पुनि बिकिबे के हेत हाट-दिसि चले बिचारत । पुर-सोभा-धन-धाम बिबिध अभिराम निहारत ॥१॥ "अहो संभुपुर की सुखमा कैसी मन मोहै। पै निज चित्त उदास भएँ सोऊ नहि सोहै ॥ दै सब महि मुनिवरहिँ नाहिँ तेती सुख लीन्यौ । जेतौ दुख अब लहत जानि ऋन अजहुँ न दीन्यौ”॥२॥ तिहिँ अवसर पुनि गाधि-सुअन तहँ आनि प्रचारयौ । किये गनि विकराल ब्याल लॉ बचन उचारयौ ॥ "अरे भ्रष्ट-प्रन बोलि मास पूरचौ के नाहौँ । अब बिलंब किहिँ हेत दच्छिना देवे माही ॥३॥