पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०४

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अब हम इक छन-मात्र तोहि अवसर नहिँ दैहै । नै न सुनिहैं वात सकल मुद्रा चुकवैहै ॥ बोलि देत के नाहिँ नतरु अब बेगि नसैहै । ब्रह्म-डंड अति कठिन साप-बस तब सिर ऐहै" ॥४॥ करि प्रनाम कर जोरि नृपति बोले मृदु बानी । "हैहै अवधि आज पूरी मुनिवर बिज्ञानी ॥ बिकन हेत हम जात हाट मैं धनिकनि हेरत । पहुँचि तहाँ क्रयकर्तनि कौँ तुरतहिँ अब टेरत ॥ ५ ॥ सुत-पत्नी-जुत दास होइ तिनसौँ धन लैहैं। ऋषिवर राखहु छमा नैकु ऋण सकल चुकैहै " ।। सुनि मुनि मन मैं कयौ “अजहुँ मति नैकु न फेरी । अरे भूप हरिचंद धन्य छमता यह तेरी" ॥ ६ ॥ बोले पुनि करि क्रोध भला रे मषाभिमानी । साँझ होत ही तव दृढ़ता जैहै सब जानी ॥ सूर्य-अस्त के पूर्व दच्छिना जौ नहिँ पैहे । तोहि धृष्टता को तेरी तो फल भल दैहैं। ॥७॥ यौँ कहि, घिरइ, चढ़ाइ भौंह ऋषिराइ सिधाए । हरि सुमिरत हरिचंद हाट अति आतुर पाए । सिर धरि तृन लगे पुकारि यौं सवहिँ सुनावन । "सुना-सुनौ सब नगर धनीगन सेठ महाजन ॥८॥