पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०६

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लखि दंपति कातर है लै लगाइ उर लीन्ह्यौ । फेरि माथ पर हाथ चिबुक को चुंबन कीन्ह्यौ ॥ बहुरि बिकन के हेत लगे ग्राहक कौँ टेरन । आसाकृत चल चखनि चपल चारहुँ दिसि फेरन ॥१४॥ जित तित चरचा चली बिकत इक दासऽरु दासी । लखन हेत सब ओरनि सौँ उमड़े पुरवासी ॥ एकत्रित तह भए आनि बहु लोग लुगाई । लागे पूछन मोल, कहन निज-निज मन-भाई ॥१५॥ उपाध्याय इक बृद्ध सिष्य-जुत सुनि यह धायौ । करि श्रम भीड़ हटाइ आइ तिन सौँ नियरायो । लखि तिनकौँ है चकित हृदय-अंतर इमि भाष्यौ । "छत्र, मुकुट के जोग सीस यह क्यौँ तन राख्यौ ॥१६॥ अति प्रलंब आजानु बाहु दृग कानन-चारी। उन्नत ललित ललाट बिसद बच्छस्थल धारी ॥ को यह जामै लखियत चिह्न चक्रवर्ती के। औ तैसेही सुभ सोहत लच्छन इहि ती के ॥१७॥ रूप-सील-गुन-खानि सुघर सबही विधि साहति । लाजनि बोलति मंद नैकु सौंहैं नहिँ जोहति ॥ साँचहिँ यह कोउ अति पुनोत कुल की कुलनिधि है। जानि परत नहिँ बाम भयौ ऐसौ क्यों विधि है" ॥१८॥