पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०७

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"छत्री-कुल यौँ गुनि मन पसीजि नृप सौं बोल्यौ मृदुबानी। "कहहु महासय कौन आप ऐसी कत ठानी ॥ सब संसय करि दूर हमैं हित-चिंतक जानौ । होहि उचित तो कछु अपनौ बृत्तांत बखानौ" ॥ १९ ॥ करि प्रनाम अवलोकि अवनि उत्तर नृप दीन्ह्यौ । मैं जन्म सुनहु द्विजबर हम लीन्ह्यौ ॥ इक ब्राह्मन-ऋन-काज आज बिकिबे की ठानी। इहै मुख्य सब कथा अपर अब बृथा कहानी" ॥२०॥ उपाध्याय बोल्यौ "हम सौं धन लै ऋन दीजै।" कह्यौ भूप कर जोरि "छमा हम पर बस कीजै ॥ यह तो द्विज की बृत्ति कबहु ऐसा नहिँ ढहै । जौ यह तन धन लै सतहिँ निज भार चुकैहै ।। २१ ॥ पै अपने काँ बैंचि आप सौँ जौ धन पावै । तो ऋषिऋन हम तुरत सहित संतोष चुकावै॥ कयौ विप्र "तो पंच सत स्वनखंड यह लीजै । दोऊनि मैं सौं एक दासपन स्वीकृत कीजै" ॥ २२ ॥ यह सुन सैब्या कयौ जोरि कर दृग भरि बारी । "हमहिँ अछत तुम नाथ न होहु दास-ब्रत-धारी ॥ बिकन देहु हमहीँ पहिलै सुनि विनय हमारी। जामैं ये हग लखै न ऐसी दसा तिहारी" ॥२३॥