पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह सुनि महा धीर भूपहु का साहस छूटयौ । अश्रु-बाह की प्रबल पूर दोहूँ दिसि फूटयौ ।। पै पुनि करि हिय प्रौढ़ भूप रानिहिँ समुझायौ । बहु बिधि करि उपदेस धर्म-पथ कठिन दिखायौ ॥ २९॥ कह्यौ "बिन की आयसु पैं नित प्रति मन दीज्यौ । जासौं रहै प्रसन्न सदा साई कृत कीज्यौ । बिमानिहुँ कौँ तुष्ट सुखद सेवा सौ रखियौ । औ सिष्यनि की ओर समुद मातावत लखियौ ॥३०॥ जथासक्ति बालक हू को प्रतिपालन कीज्यौ । रहै धर्म जासौँ करि कर्म साई जस लीज्यौ" ॥ लखि विलंब अनखाइ “चलो" कौडिन्य कयौ तब । कह्यौ भूप दृग-बारि ढारि “हाँ देवि जाहु अब" ॥३१॥ चलत देखि दुखकृत-विकृत मुख बालक खोल्यो । “कहाँ जाति, जनि जाइ माइ" अंचल गहि वोल्यौ ॥ पुनि बिलंब जिय जानि क्रूर कौडिन्य रिसायो । कह्यो "बेगि चलि" झटकि बालकहिँ भूमि गिरायौ ॥३२॥ रोवन लाग्यौ फूटि झपटि हरिचंद उठायौ। धूरि पाँछि मुख चूमि लाइ हिय मौन गहायौ ॥ कयौ बिन सौँ "सुना देवता यह अबोध है। बालक पै न कबहुँ उचित कहुँ इतौ क्रोध है" ॥३३॥