पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११

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( से युक्त है। दोनों को कथा में ही इतना आकर्षण है कि घटना-अनुक्रम और सूक्ष्म कला का प्रदर्शन उतना आवश्यक नहीं रह जाता। रत्नाकर जी ने गंगा के अवतार की जो विशद, ओजपूर्ण और रहस्यमयी वर्णना की है, वह पौराणिक काव्य के उपयुक्त ही हुई है। पर यदि आरंभ के सर्गों को संक्षिप्त करके उत्तर सर्गों को कुछ विस्तृत कर दिया जाता तो यह प्रबंध-काव्य और भी अधिक उत्कृष्ट श्रेणी का बन जाता। फिर भी अपने प्रस्तुत रूप में भी मध्य के कतिपय सर्ग स्थायी सौंदर्य से समन्वित हुए हैं।) (यदि "श्रृंगार लहरी" और "उद्धवशतक' को मिला दिया जाय तो कृष्णकाव्य की एक संक्षिप्त, पर अच्छी कथा बन सकती है। इनमें "श्रृंगार- लहरी” यद्यपि कुछ परवर्ती रचना है, तो भी “उद्धवशतक" "उद्धवशतक" की उससे अधिक प्रौढ़ और मर्मस्पर्शी हुआ है। यही शतक श्रेष्ठता रत्नाकर जी की सर्वश्रेष्ठ कृति कही जा सकती है। इसका संगीत हमारी भावनाओं पर अधिकार करने में समर्थ है। इसका पाठ करते समय भावों की मौलिकता और उक्तियों की नवीनता का अपूर्व आनंद आता है और सूर के पद स्मरण हो आते हैं। यह कोई साधारण विशेषता नहीं है, वरन् इसे रत्नाकर जी की सबसे बड़ी विशेषता समझनी चाहिए। ऊपर कह चुके हैं कि भक्तों में भावुकता अधिक है और रत्नाकर जी में सूक्तिप्रियता अधिक। परंतु "उद्धवशतक" की सूक्तियाँ भी एक अंतर्निहित रस में डूबी हुई जान पड़ती हैं। इसका अर्थ यही है कि इन छंदों में रत्नाकर जी का कवि-हृदय कारीगरी की खोज करता हुआ भी अपना वह व्यापार भूल गया है और मानों शिथिल होकर उन्हीं भावनाओं में विश्राम चाहने लगा है। रत्नाकर जी की इससे अधिक तन्मयी काव्य-साधना दूसरी नहीं मिलती। भवभूति की प्रसिद्ध पंक्ति-"एको रसः करुण एव निमित्तभेदात्" भिन्न भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भिन्न मात्रा में मान्य होगी। महा कवि रवींद्रनाथ ने एक स्थान पर कहा है "हमारे सुख-शृंगार के संपूर्ण साज में दुख की एक प्रच्छन्न छाया मिली हुई है।" रत्नाकर जी भी शृंगार-प्रिय व्यक्ति थे; उन्होंने अधिकांश शृंगारी कविता ही लिखी है। उनके जीवन-व्यापी श्रृंगार में छिपी हुई दुख की छाया ही मानो "उद्धवशतक' का केंद्र पाकर साकार हो गई है। सच ही है-"हमारी श्रेष्ठतम कविता वही है जो करुणतम कथा कहे। प्रकृति-वर्णन के कुछ अच्छे स्थल "हिंडोला", "हरिश्चंद्र काव्य" और "गंगावतरण" में आए हैं। जिनमें स्वर्ग से उतरकर गंगा का पृथ्वी पर आना सबसे अधिक प्रभावपूर्ण और चमत्कारी है । तो भी वह वास्तविक नहीं। यथार्थ और शुद्ध प्राकृतिक वर्णन का संपूर्ण व्रजभाषा काव्य में प्रायः अभाव ही है। उसकी तो वहाँ परिपाटी ही नहीं चल पाई। तथापि गंगावतरण में गंगा के हिमालय से निकलकर समतल की ओर बढ़ने के ये दृश्य- कहुँ कोउ गह्वर गुहा माहिँ घहरति घुसि घूमति । प्रबल वेग सौं धमकि चूँसि दसहूँ दिसि दूमति ॥ कढ़ति फोरि इक ओर घोर धुनि प्रतिधुनि पूरति । मानहु उड़ति सुरंग गूढ़ गिरि-सुगनि चूरति ॥