पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११०

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"रे छत्री - कुल - पच्छ सदा उर रच्छनहारे । अंतरिच्छ सौं बेगिहिँ गिरौ समच्छ हमारे ॥ छत्रिहि कुल मैं होहि जन्म पुनि जाड तिहारे । बालपनहिँ मैं जाहु बहुरि दुज-हाथनि मारे" ॥३९॥ जल छोड़त इमि भाषि भयो कोलाहल भारी । लगे गगन सौं गिरन सकल है परम दुखारी ॥ यह लखि भूप सराहि तपोबल मन मैं भाख्यौ । “साँचहि मुनि अति दयाभाव हम पर यह राख्यौ ॥४०॥ जो नहिँ अब लौँ दिया साप करि दाप हृदय पुनि बोले कर जोरि बचन बर बोरि बिनय मैं ॥ "दासी करि महिषीहिँ दिरम आधे ही पाए । यह लीजै तन बेचि देत अब सेस चुकाए" ॥४१॥ याँ कहि गाँठि निवारि डारि धन महि पर दीन्यौ । तिरस्कार ताकौ करि मुनि यह उत्तर दीन्ह्यौ ।। "हम आधा नहिँ चहत एक बेरहिँ सब लैहैं। राखहु दृढ़ यह जानि और अवसर नहिँ दैहैं" ॥४२॥ लागे भूप ससंक बहुत ग्राहक-गन टेरन । लगी भीर पुनि आइ चारिहू दिसि नै हेरन । डोम चौधरी मरघट का तिहिँ अवसर आयौ । इक सेवक के संग सुरा के रंग रंगायौ ॥४३॥