पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११२

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पुनि है बिकल कयौं ऋषि सौँ “करुना अब कीजै । इहि अवसर गहि बाँह उबारि हमैं जस लीजै ॥ करि निज दास जन्म भर सब सेवा करवाऔ । हा हा पै चंडाल होन सौं हमैं बचाऔ ॥४९॥ "कौन काज करिहै" बोले मुनि “दास हमारौ । हम तपस्वि निज दास आपही तुमहिं विचारो॥ कयौं भूप पुनि "नऊ दया उर अंतर आना। करिहैं सो सब जो आज्ञा है है मुनि मानौं" ॥५०॥ "सुनो धर्म साखी सब" मुनि यह सुनत पुकारयौं । "मम आज्ञा पालन कौं पन देखो यह धारयौं । कयौ भूप "हाँ हाँ है है आज्ञा सो करिहैं। सब संसय परिहरहु प्रतिज्ञा सौं नहिँ टरिहैं" ॥५१॥ बोले मुनि "ता होति इहै आज्ञा, न बकाऔ। बिकि याही के हाथ दच्छिना अबहिँ चुकाऔ" ॥ सुनि यह अधर दबाइ नाइ सिर मौन भए छन । फिर बोले "अच्छा याही के कर बेचत तन" ॥५२॥ बहुरि डोम सौँ कयौ "सुनहु पहिलहि हम भाषत । बिकत राव हाथ नियम पर ये करि राखत ॥ रखिहैं भिच्छा असन बसन-हित कंबल लैहैं। बसिहैं बिलग बेगि करिहैं प्रायसु जो पैहैं। ॥५३॥