पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११३

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सो सुनि नृप के बचन नियम सब स्वीकृत कीन्हे । पँच सत स्वर्न खंड सेवक सौं लै गिनि दीन्हे ।। भूपति अति सुख मानि धरे लै मुनिवर आगे । मुनि उठाइ कहि 'स्वस्ति' चहूँ दिसि बाँटन लागे ॥५४॥ कह्यौ भूप "ऋषिराज सकल अपराध छमी अब । जो विलंब सौँ भयो कष्ट बिसराइ देहु सव" ॥ "तजहु संक हम भए तुष्ट लखि चरित तिहारे"। यौँ कहि नैन नवाइ बेगि ऋषिराइ सिधारे ॥५५॥ बोले नृप भरि साँस आँसु बब पाँछि वसन साँ। "आयसु होहि सो करहि, चौधरी!अब तन मन सौं"। कयौ चौधरी "तुम दक्खिन मसान पर जाऔ । तहाँ कफन के दान लेन मैं नित चित लाऔ ॥५६॥ बिना दिएँ कर मृतक फुकन कबहूँ नहिँ पावै । धनी रंक राजा परजा कैसहु कोउ आवै ॥ घाट निवास सचेत करौ है दास हमारे" । यह आयसु सुनि भूप तुरत तिहि दिसि पग धारे ॥५॥ लगे कफन कर लेन जाइ तहँ इत महिदानी । उपाध्याय घर जाइ भई दासी उत रानी ॥ इहि बिधि दारा संग बेचि निज अंग दास है। राख्यौ नृप निज रंग इंद्र भौ दंग जाहि ज्वै ॥५८॥