पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११५

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कहु सृगाल कोउ मृतक-अंग पर ताक लगावत । कहुँ कोउ सब पर बैठि गिद्ध चट चाँच चलावत ॥ जहँ तहँ मज्जा माँस रुधिर लखि परत बगारे । जित तित छिटके हाड़ स्वेत कहुँ कहुँ रतनारे ॥४॥ हरहरात इक दिसि पीपर को पेड़ पुरातन । लटकत जामैं घंट घने माटी के बासन ॥ बरषा ऋतु के काज औरह लगत भयानक । सरिता बहति सबेग करारे गिरत अचानक ॥५॥ ररत कहूँ मंडूक कहूँ झिल्ली झनकारें। काक-मंडली कहूँ अमंगल मंत्र उचारें ॥ लखत भूप यह साज मनहिँ मन करत गुनावन । "परयौ हाय ! आजन्म कर्म यह करन अपावन ॥६॥ भए डोम के दास बास ऐसे थल पायौ । कफन-खसोटी काज माहिँ दिन जात वितायौं । कौन कौन सी बातनि पै दृग-बारि बिमोचें । अपनी दसा लखें कै दुख रानी को सोचें ॥७॥ कै अजान बालक को अब संताप बिचाएँ । भयौ कहा यह हाय होत मन हृदय बिदा ॥ पै याहू करि सकत नाहिँ अब हे त्रिपुरारी ॥ भए और के दास कहाँ निज-तन-अधिकारी" ॥८॥