पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/११९

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कयौं कपालिक "ता न बृथा एता दुख पाया। यासौँ स्वर्न बनाइ जाइ निज दास्य छुड़ाऔ” ॥ सत्यव्रती हरिचंद बहुरि यह उत्तर दीन्ह्यौ । "जोगिराज निज मत-प्रकास प्रथमहिँ हम कीन्हो ॥२४॥ होइ चुके जब दास गुनत तब यह मत नीका । जो कछु हमकौं मिलै सबहि धन है स्वामी का ॥ यात करि अब कृपा मानि बिनती यह लीजै । जो कछु दैवी होइ जाइ स्वामिहिँ कौँ दीजै" ॥२५॥ यह सुनि अजगुत मानि मनहिँ मन धर्म सराह्यौ । "अहो भूप हरिचंद इहाँ लौँ सत्य निबाह्यौ" ॥ बहुरि बिदा लै दै असीस यह भाषि सिधार्यो । "अच्छा साई करत जाइ जो तुम उच्चार्यो" ॥२६॥ पुनि आए तिहिँ ठाम अनेक देव देवी तब । आठहु सिद्धि नवौ निधि द्वादसह प्रयोग सब ॥ लगे कहन "जय होइ भूप हरिचंद तिहारी। तुम करि कृपा समस्त विघ्न-बाधा निरवारी ॥२७॥ अब जो आज्ञा होइ करहिँ हैं सुबस तिहारे"। यह सुनि गुनि मन माहिँ नृपति इमि बचन उचारे ॥ "कृपा भाव यह आहिँ सुनहु सब भाँति तिहारे । पराधीन हम पै यातें यह कहत पुकारे ॥२८॥