पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२

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हरिन चौकड़ी भूलि दरिनि दौरत कदराए । तरफरात बहुसँग मृग झाडिनि अरुझाए । गहत प्लवंग उतंग मृग कूदंत किलकारत । उड़ि बिहंग बहु रंग भयाकुल गगन गुहारत ॥ ... गुफा फारि फहराइ चलत फैलत बर बारी । मानहु दुख-द्रुम-दलन-काज बिधि रचत कुठारी ॥ गंगोत्तरि ते उतरि तरल घाटी मैं आई। गिरि-सिर तैं चलि चपल चंद्रिका मनु छिति छाई ॥) चाहे कुछ लोगों को भाषा की अतिरंजना के कारण यथार्थ न जान पड़े, किंतु फिर भी बहुत कुछ स्वाभाविक हैं और उत्प्रेक्षाएँ भी प्रायः सर्वत्र चित्रोपम हैं। व्रजभाषा की उसी प्रसिद्ध– “कहूं...... कहूं", "कोउ...कोउ" द्वारा गिनती गिनानेवाली प्रथा के अनुरूप भी कुछ पंक्तियाँ हैं। यथा-) ( कोउ दूरहिँ त दबकि भूरि जल पूर निहारत । कोउ गहि बाँहि उमाहि बढ़त बालक कौँ बारत ॥ ) (हमने गणना करके देखा तो पृष्ठ २८७ में ७,२८८ में १० और २८६ में ६ कोउ' आए हैं। इसे ब्रजभाषा का जन्मसिद्ध अधिकार समझना चाहिए। "हिंडोला” में साज-सज्जा और झूले का वर्णन और "हरिश्चंद्र काव्य" में मरघट-वर्णन भी अच्छे हैं, परंतु परंपरा उनमें भी टूट नहीं सकी है। चहुँ दिसि तै घन घोरि घेरि नभ मंडल छाए। घूमत झूमत झुकत औनि अतिसय नियराए ॥ दामिनि दमकि दिखाति, दुरति पुनि दौरति लहरै। छूटि छबीली छटा छोर छिन छिन छिति छहरै॥ मानहुँ संचि सिँगार हास के तार सुहाए। धूप छाँह के बीनि बितान अतन तनवाए॥ कहुँ तिनकै बिच लसति सुभग बगपॉति सुहाई । मुकता सर की मनौ सेत झालर लटका ई॥ (हिंडोला) अलंकार की छटा यहाँ भी छहर रही है। केवल मरघट में वह नहीं है। हरहरात इक दिसि पीपर को पेड़ पुरातन । लटकत जामै घंट घने माटी के बासन ॥ बरषा रितु के काज औरहू लगत भयानक । सरिता बहति सबेग करारे गिरत अचानक । भई आनि जब साँझ घटा आई घिरि कारी। सनै सनै सब ओर लगी बाढ़न अँधियारो॥ भए एकठा तहाँ आनि डाकिनि पिसाच गन । कूदत करत किलोल किलकि दौरत तोरत तन ॥ ) (हरिश्चंद्र काव्य)