पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२१

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यह असगुन क्यों होत कहा अब अनरथ हैहै। गयौ कहा रहि सेस जाहि बिधना अब ख्वैहै ॥ छूट्यौ राज समाज भए पुनि दास पराए । ऐसी महिषीहूँ कौँ उत दासी करि आए ॥३४॥ औ अबोध बालकहूँ काँ बिलखत सँग भेज्यौ । इक मरिबे कौँ छाडि कहा जो नाहि अँगेज्यौ" ॥ फरको बाई आँख बहुरि सोचत बालक काँ औ यह धुनि सुनि परी परम दृढ़-बत-पालक कौँ ॥३५॥ "सावधान अब बत्स परिच्छा अंतिम है यह । डगन न पावै सत्य हरिच्छा अंतिम है यह ॥ ऐसौ कठिन कलेस सह्यौ कोऊ नृप नाही। अपनेहि कैसी धैर्य धरी याहू दुख माहीं ॥३६।। तव पुरुषा इछ्वाकु आदि सब नभ मैं ठाढ़े । सजल नयन धरकत हिय जुत इहि अवसर गाढ़े ॥ संसय संका सोक सोच संकोच समाए । साँस रोकि तब मुख निरखत बिन पलक गिराए ॥३७॥ देखहु तिनके सीस होन अवनत नहिँ पावें । ऐसी बिधि आचरहु सकल-जग-जन जस गावैं ॥ यह सुनि नृप है चकित चपल चारिहु दिसि हेर्यो । "ऐसे कुसमय माहि कौन हित सैौं इमि टेर्यो" ॥३८॥