पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२२

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TO जब कोउ दीस्यो नाहिँ हृदय तब यह निरधार्यो । "ज्ञात होत कुलगुरु सूरज यह मंत्र उचार्यो । आतुर निज आवन मैं करि बिलव गुनावन । उदयाचल की ओटहि सौं यह दीन्ह सिखावन" ॥ ३९॥ यह बिचारि पुनि धारि धीर दृढ़ उत्तर दीन्यौ । "महानुभाव महान अनुग्रह हम पर कीन्हयौ । तजहु संक सब अंक कलंक लगन नहिं दैहैं। जब लौँ घट मैं पान आन करि सत्य निबैहैं। ॥४०॥ एतेहि मैं श्रुति माहिँ सब्द रोवन का आयौ । भूलि भाव सब और स्वामि-हित पर चित लायौ ॥ लह ठाँकि तिहिं ओर चले आतुर आहट पर ॥ साँति मुनिनि की वारि गई तिहि घबराहट पर ॥४१॥ पग उठावतहिँ भए असुभ सुभ सगुन एक सँग । जंबुक काटी बाट लगे फरकन दहिने अँग ॥ बिगत विषाद हर्षहत हिय करि धैर्य भाव भरि । होत हुतो जहँ रुदन तहाँ पहुँचे सुमिरत हरि ॥ ४२ ॥ देखी सहित बिलाप बिकल रोवति इक नारी । धरे सामुहैं मृतक देह इक लघु आकारी ॥ कहति पुकारि पुकारि "वत्स मैया मुख हेरौ । बीरपुत्र है ऐसे कुसमय आँखि न फेरौ ॥४३॥