पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२३

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हाय हमारौ लाल लिया इमि बूटि विधाता । अब काका मुख जोहि माहि जीवै यह माता ॥ पति त्यागैं हूँ रहे पान तव छोह सहारे । सो तुमहूँ अब हाय बिपति मैं छाँड़ि सिधारे ॥४४॥ अवहिँ साँझ लौँ तो तुम रहे भली विधि खेलत । औचकहीं मुरझाइ परे मम भुज मुख मेलत । हाय न बोले बहुरि इतोही उत्तर दीन्ह्यौ । 'फूल लेत गुरु हेत साँप हमकौँ डसि लीन्यौ ॥४५॥ गयौ कहाँ सेा साँप आनि क्यों मोहुँ डसत ना। भरे पान किहि श्रास रह्यौ अब बेगि नसत ना ॥ कबहुँ भाग-बस प्राननाथ जौ दरसन दैहैं। तो तिनकौँ हम बदन कहौ किहिँ भाँति दिखे हैं ॥४६॥ उन तो साँप्यौ हमैं दसा हम यह करि दीन्ही । हाय हाय क्यों सुमन चुनन की आयसु दीन्ही ॥ महा नाथ अब तो आवौ इत नैं कृपा करि । लेहु निरखि निज हृदय-खंड का बदन नैन भरि ॥४७॥ पानदंड दै हमैं कष्ट सब बेगि निबारी । सुनत क्यों न इहि बेर फेर निज न्याव सम्हारौ ॥ हाय बत्स किन सुनि पुकारि मैया की जागत । अरे मरे हूँ पै तुम तो अति सुंदर लागत" ॥ ४८ ॥