पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२४

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करि विलाप इहिं भाँति उठाइ मृतक उर लाया। चूमि कपोल बिलोकि बदन निज गोद लिटायौ । हिय-बेधक यह दृस्य देखि नृप अति दुख पायौ । सके न सहि बिलगाइ नैकु इटि सीस नवायौ ॥ ४९॥ लगे कहन मन माहि "हाय याकौ दुख देखत । हम अपनोहूँ दुसह दुःख न्यूनहिँ करि लेखत ॥ ज्ञात होत काहू कारन याका पति छूट्यौ । पुत्र-सोक को बज्र हृदय ताहू पर टूट्यौ ॥५०॥ हाय हाय याकी दुख देखत फाटति छाती । दिया कहा दुख अरे याहि विधना दुरघाती ॥ हाय हमै अब याहू सौं माँगन कर परिहै। पै याके हैं कैसे यह बात निकरिहैग ॥५१॥ पुनि भूपति का ध्यान गयौ ताके रोवन पर । बिलखि बिलखि इमि भाषि सीस धुनि मुख जोवन पर। "पुत्र ! ताहि लखि भाषत हे सब गुनि औ पंडित । हैहै यह महराज भोगिहै आयु अखंडित ॥५२॥ तिनके सो सब वाक्य हाय प्रतिकूल लखाए । पूजा पाठ दान जप तप सब बृथा जनाए । तव पितु को दृढ़-सत्य-व्रतहु कछु काम न आया। बालपनेहि मैं मरे जथाबिधि कफन न पायौ" ॥५३॥