पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यौं कहि उठि अकुलाइ चयो धावन ज्यौं रानी । त्यौं स्वर करि गंभीर धीर बोले नृप बानी ॥ "बेचि देह दासी हैं तब तो धर्म सम्हार्यो । अब अधरम क्यों करति कहा यह हृदय विचार्यो ॥ ६९ ॥ या तन पै अधिकार कहा तुमकौँ सोची छिन । जानि बुझि जो मरन चली स्वामी-आयसु बिन"॥ यह सुनि है चैतन्य महारानी मन आन्यौ। "ऐसे कुसमय माँहि कौन हित-मंत्र बखान्यौं ॥ ७० ॥ साँचहिँ अनरथ होन चहत हो यह अति भारी । धन्य धर्मवक्ता सो जो गहि बाँह उबारी॥ हमैं कौन अधिकार रया अब मान तजन को । दीसत और उपाय न दुख सौँ दूर भजन को ॥ ७१ ॥ तो छाती धरि बज्र लोक-आचार सम्हारे । जिन कर पाल्यौ तिन कर....! हाहा काहिँ पुकारें ॥ इहि बिधि करत विलाप काठ चुनि चिता बनाई। धाड़ मारि सेो मृतक देह ताके दिग ल्याई ॥ ७२ ॥ तब नृप बरबस रोकि आँसु, साँहे बढ़ि आए । थाम्हि करेजा धारि धीर ये सब्द सुनाए । "है मसानपति की आज्ञा कोउ मृतक फुकै ना। जब लौँ फूकन-हार कफन आधौ कर दै ना ॥ ७३ ॥