पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यात देवी देहु तुमहुँ कर, क्रिया करौं तब" । भर्यो गगन यह सब्द भूप इमि टेरि कया जब ॥ "धन्य धैर्य बल सत्य दान सब लसत तिहारे। अहो भूप हरिचंद सकल लोकनि नैं न्यारे" ॥ ७४ ॥ यह सुनि सैव्या भई चकित बोली इत उत ज्वै । "आर्यपुत्र की करत प्रसंसा कौन हितू है। पै इहि बृथा प्रसंसा हूँ सौँ होत कहा फल । जानि परत सब सास्त्र आदि अब तो मिथ्या छल ॥ ७५ ॥ निसंदेह सुर सकल महीसुर स्वारथरत अति । नातरु ऐसे धर्मी की कैसैं ऐसी गति" ॥ यह सुनि सवननि धारि हाथ भूपति तिहिँ टोक्यो। "हरे-हरे यह कहन कहा तुम" यौँ कहि रोक्यौ ॥ ७६ ॥ "सूर्य-चंस की बधू चंद्र-कुल की है कन्या । मुख सौँ काढ़त हाय कहा यह बाव अधन्या ॥ बेद ब्रह्म ब्राह्मन सुर सकल सत्य जिय जाना। दोष आपने कर्महिं को निहचय करि मानौ ॥ ७७॥ मुख सौँ ऐसी बात भूलि फिरि नाहिँ निकारौं । होत बिलब, दै हमै कफन करि क्रिया पधारो" ॥ सुनि यह अति दृढ़ वचन महिपि निज नाथहिँ जान्यो। कछु सुभाव कछु स्वर कछु आकृति सौं पहिचान्यौं ।।७८)