पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३०

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परी पाय पर धाइ, फूटि पुनि रोवन लागी। औरहु भई अधीर अधिक प्रारति जिय जागी ॥ कहयो हुचकि “हा नाथ ! हमैं ऐसौ बिसरायो। कहाँ हुते अब खाँ कबहूँ नहिँ बदन दिखायौ ॥ ७९ ॥ हाय आपने प्रिय सुत की यह दसा निहारौ । लूटि गई हम हाय करहिं अब कहा उचारौ ॥ सुनि भूपति गहि सीस उठाइ बिबिध समुझायौ । "प्रिये न छाडौ धैर्य लखा जो दैव लखायौ ॥ ८ ॥ अब बिलंब को समय नाहिँ चेतो मत रोवौ । भोर होनही चहत उठौ अवसर जनि खोवौ ॥ कोउ इत उत तैं आनि कहूँ पहिचानि जु लैंहै। इक लज्जा बचि रही है सोऊ चलि जैहै ॥ ८१॥ चलौ हमै दै कफन क्रिया करि भौन सिधारौ । सुना बीर-पत्नी है धीरज नाहि बिसारौ" ॥ यह सुनि सैन्या कयौ बिलखि अतिसय मन माहीँ । "नाथ हमारे पास हुतौ बस्तर कोउ नाही ॥ ८२ ॥ अंचल फारि लपेटि मृतक फूंकन ल्याई हैं हा हा ! एती दूर बिना चादर आई हैं। दीन्हें कफनहिँ फारि लखहु सब अंग खुलत हैं । . हाय ! चक्रवर्ती का सुत बिन कफन फुकत है" ॥ ८३ ॥